Sunday 6 April 2014



खौह

हाँ, आओ खामोश 
उतर आओ पुरसुकून 
मेरे भीतर 

इन अतल गहराईयों में
कोई परेशानी नही बची रहेगी 
अन्तर्मन पर पड़ने वाली 
बाह्य मे घिरने वाली 
कोई मार नही छू सकती तुम्हें 

घुटनो मे सर रख दो
और डूब जाओ मेरे भीतर
कोई दुश्मन अब नही आने वाला
कोई विषाद छू नही सकेगा तुम्हें

वो लड़ाईया
जो लड़ नही पाये तुम
वो ढाल जो थी ही नहीं तुम्हारे पास
वो अस्त्र जो नही चाहा इस्तेमाल करना तुमने
यहाँ उपलब्ध हैं तुम्हारी सहायता को

बस आँख मीचो
और उतर आओ खामोश
हाँ मैं हूँ अंधेरे मेंडूबी
अवसाद की एक
अंधेरी खौह .........!!

संध्या

Thursday 3 April 2014






Saal ka Aakhri Din Hai
Abhi Kuch Dhoop Hai Lekin
Zara Si Dair ko Tay Hai Ke Akhir
Shaam Hona Hai
Haqiqat Ya Kahani Jo Bhi Hai
Anjam Hona Hai
Chalo Mil Baith Ke Apne Khasare
Bant Lete Hain
Sab Hi Rang Aur jugno Aur
Sitare Bant Lete Hain
Zara Si Dair Ko Tay Hai ke Akhir
Shaam Hona Hai
Haqiqat Ya Kahani Jo Bhi Hai
Anjam Hona Hai
To kyon Naa Kuch Shaam Se
Pehle
Jo Kuch Ghariyan Muyasir Hain
Unhi Mein Zindagi Kar Lain,
Kisi ehsaas Ki Shama Jala Kar
Inn Andheron Main
Koye Daam Roshni Kar Lain
Chaloo Hum Dosti Kar Lain
Zara See Dair ko Tay Hai Ke Akhir
Shaam Hona Hai
Haqiqat Ya Kahani Jo Bhi Hai
Anjam Hona Hai..!

आकर्षण

January 2, 2013 at 5:39am
आकर्षण

ये अक्सर छाया की तरह था उजाले का आभास
अंधेरे मे समाहित होता हुआ खुद मे
 तरह तरह से लुभाता रहा हरदम
 कठिन निर्णय के समय इसने बाँधे रखा
अपनी चकाचोंध मे.....
 इसके वलय भिगाते तो रहे
पर बांध ना सके ...

संध्या


सब कुछ हम कहाँ छोड़ आते हैं 
जहाँ जाते है वहाँ 
खुद का एक हिस्सा छोड़ भी आते है 
और ले आते है साथ 
कुछ थोड़ी सी गर्द 
जिसे लपेटे घूमना चाहते है 
कितना भी झटकार लो
कहाँ मुक्त हो पाती है
कभी गर्दन पर ,कभी हथेली के ठीक पीछे
वहाँ की गर्द जहाँ हाथ टिकाए थे थोड़ी देर को
पता नही गर्द ही थी या
गरम पत्थर का एहसास ...
या शायद वो नज़र जो उस समय
तुम्हारे होंठ और नाक के ठीक बीच मे टिकी थी ....


संध्या
Ye soch ke aazaad kiya soch ko apni ,
jayegi kahan apani hai apani hee rahegi !

ये सोच के आज़ाद किया सोच को अपनी ,
जाएगी कहाँ , अपनी है ,अपनी ही रहेगी ! 


संध्या 




न कर शुमार कि हर शै गिनी नहीं जाती
ये जिंदगी है हिसाबों से जी नहीं जाती

ये नर्म लहजा, ये रंगीनी-ए-बयान, ये खुलूस
मगर लड़ाई तो ऐसे लड़ी नहीं जाती

सुलगते दिन में थी बाहर, बदन में शब को रही
बिछड़ के मुझसे बस एक तीरगी नहीं जाती

नकाब डाल दो जलते उदास सूरज पर
अँधेरे जिस्म में क्यूँ रोशनी नहीं जाती

हर एक राह सुलगते हुए मनाजिर हैं
मगर ये बात किसी से कही नहीं जाती

मचलते पानी में ऊंचाई की तलाश फुजूल है
पहाड़ पर तो कोई भी नदी नहीं जाती




फज़ल ताबिश

ग़ज़ल




जो भी कहती हूँ वो कहती आपकी मर्ज़ी से जनाब 
आपने समझा गर, आपकी ज़र्रानवाजी सर जनाब !

जो कहानी बचपन मे सुनी थी याद है वो आज भी ,
हाँ,सुनाऊँ किसको नही मालूम है मगर , जनाब !

एक गाँव के जैसी हो गई ये दुनिया वो कहते हैं मगर ,
हाँ ,मेरा कहीं लेकिन गुम सा गया है घर जनाब !

जी ,हवा,धूप ,पानी सभी कुछ आपके काबू मे थे ,
हमने केवल अपना दिल बचाया मर -मर जनाब !

कहाँ है दुम,कहीं है सींग और कहीं रोबोट सा है ,
पाल रखखे हैं ये उसने कैसे कैसे डर जनाब !

संध्या
चेहरे 3


आईने मे 
सारे चेहरे एक साथ उग आते है 
मुह चिड़ाते हुए मुझे 
मेरा चेहरा कहाँ है लेकिन ..?
कहता है....
कहाँ चलीं....?
यकीन मानिए ...
दिखा देती हूँ 
घर मे बजती आवाज़ों की आड़ मे 
उन सब चेहरों को अंगूठा !!

संध्या
चेहरे (2) 


सम्बोधन की उलझन मे फसा 
नाम के साथ 'मेडम जी ' लगाता हुआ 
चार चार हिजजो मे ,हकलाकर 
उच्चारित करता हुआ 
अपनी कमतरी पर 
लगाते ठहाको से बेखबर 
कोई सर पर लगा देता है चपत 
कोई उसकी ऊपरी जेब पर रखी चिल्लर को 
खनखना देता है 
मुझे पानी पिलाता हुआ 
जान बूझ कर लगाया है धक्का किसी ने 
पानी बचाता है छलक़ने से ,
अपनी अदम्य मुस्कुराहट से खुद को नापता जोखता है ,
जोकर सा बना दिये जाने से विरक्त ...
आचरण की सभ्यता को 
इत्मीनान के साथ 
दिखा देता है अंगूठा !!

संध्या 
चेहरे ( 1  )


वो चेहरा 
जो अभी अभी नमूदार हुआ ,
औचक सामने खड़ा 
अपनी भूख दिखा रहा था 
अपना पेट छिपाते हुये 
गुटके पर लगा दिये गए 
सारे प्रतिबंध के बावजूद
अंगूठे से मसलकर हथेली पर
गुटक रहा था गुटका
उसे लगातार भूखे रखने की
साज़िश को दिखाता हुआ अंगूठा
दुबला शरीर लिए
लंबाकद सफ़ेद बाल ,
और धनुषाकृत रीड लिए
वेतन की फाईल लिए हाथो मे
सिर्फ और सिर्फ वेतन प्राप्ती को उधधत
अपने व्यक्तित्व को प्रश्नवाचक चिन्ह मे
तब्दील कर चुका है
पीला फार्म, हरा फार्म ,
कहाँ मिलेगा साब ?
हस्ताक्षरों के जंगल मे
घूम रहा है
इस टेबल से उस टेबल
ज़िंदा रहने के सवालो से उलझा
हराता हुआ
बेशरमी की सीमा पार कर चुकी सहनशीलता को
दिखा चुका है अंगूठा ,
अपने क्रोध को
कब का !!


****** 
एक नज़्म 

कभी सोचना भी पड़े अगर ,
के ये जिस जगह पर खड़े हैं हम 
के ये रास्ता ,जो है आता नज़र 
पहुँचेगा कहाँ है नही खबर 

चलो एक सिम्त को चल पड़ें 
कहीं तो पहुचेगी राह ये 
जो पहुँच गए ,तो खैर है 
न पहुँच सके ,समझ मंज़िल न थी

चलो दूजा चुनते हैं रास्ता
हैं उलझने इसमे भी पाबस्ता
घनी सी धुंध है सामने
है रोशनी मगर जुदा

है शर्त ये ,खुली आँख हो
न हाथ मे कोई हाथ हो
बस खुद एतमादी ही साथ हो
हाँ यहीं मिले खुद की खबर !

संध्या

आवाज़ 




ये कुछ लोहे के ठंडे गोले सा 
गले के नीचे अटक सा गया है 
सुनो , निगला नही जा रहा 

माना कि, ठंड बहुत है 
और हाथों की पोरें
हो गई हैं बहुत ठंडी

कुछ
फुसफुसाहट से ज़रा तेज़ 
आवाज़ का कतरा
शायद कुछ
मदद कर सके

बहुत देर से निगाह
एक ही पन्ने पर जमीं है
पन्ना पलटा नही जा रहा है

क्या यह सचमुच किसी की आवाज़ है ...
या भरम है फकत ... ?

संध्या

क़ता


मेरे ख़यालों के आईने हैं ,तुझसे ,
मेरे "होने " के मायने हैं तुझसे !

संध्या
ये माना 
ज़िंदगी मे आपधापी बहुत है 
हमने भी चलने की
लेकिन ठानी बहुत है !

एक फंदा 
ज्यो बुना ,दूजा कांधे से फिसला 
सिरा था एक गुमता
दूसरा ढूंढे ना मिला :
शक्तियाँ झोंक दी सारी 
एक चुटकी सुख को पाने मे
खड़ा था बगलगीर सा होकर
सुख मिला ,
लाख धब्बे हों उधड़ी,नेफे की चादर मे ,
बनाकर ओढ़नेमे सुख बहुत है !!

है क्या ऐसी कोई जगह
हैं जाना चाहते जहाँ सब
एक अंधी दौड़ मे होकर के शामिल
एक दूजे को धक्का मारकर
कहीं कुंठित हैं ,कहीं पर मुस्कराते
कहीं रोते हैं
कहीं पर लडखड़ाते ,
रंगबिरगे मुखौटे ओढ़ कर ;
भला कैसे वो अपनी रीड पर खड़ा होगा
जीवन भर रहा हो जो सजदे मे
पैरों को अपने मोड कर ,

जीवन यज्ञ मे
समिधा डाल कर
सहजता की , जीने मे
रवानी बहुत है !!

संध्या
तरतीब 


गुम हो गई है
एक कविता...

हाँ वही ,
जिसे लिखने से पहले 
लिखते हुए ...और उसके बाद 
एक जीवन जी लिया था मैंने ...

उसे फिर से लिखना चाहूंगी
ठीक उसी तरह....
बिना एक शब्द भी
आगे पीछे किए ;

ठीक उसी तरतीब के साथ ...!!

संध्या

फर्क

उस बड़े शहर से लौट कर 

बड़ी बड़ी बातें बड़े शिष्टाचार 
बड़े फर्नीचर ,बड़े कमरे ...
दौड़ते हुये लोग ...
उसने कहा मुझसे 
हम ऐसे नही बन सकते ?
सिर्फ किताबें हैं यहाँ ...
और हाँ एक अदद तालाब भी है...
हम चुप उसका चेहरा देखते हैं...
अपने काम से लौटने के बाद

उसके हाथ मे एक किताब है ...
और चेहरा चमकता हुआ
ए-76 ,होशंगाबाद रोड मे
हम "हैं "...
और वो सिर्फ दौड़ रहे हैं...

हैं न माँ ?

संध्या
(एक पुरानी डायरी से मिली कविता )
एक नज़्म :

यूँ तो बहुत रंग मिले राहों मे
इक रंग जिसने रिझाया मुझको
इक रंग जिसकी खुशबू ने सराबोर किया
इक रंग जिसे बस देखा किए ...
इक खामोशी ओढ़े...गुज़र सा गया
इक रंग ख्वाब का था
एक दिलाता था यक़ी
एक था जिसने यक़ी तोड़ दिया
खुशबू के पुल बनाता हुआ रंग...
दिलों मे राह बनाता हुआ रंग
साथ साथ चलता आवाज़ का रंग
कदमों के निशां छोड़ चला जाता था रंग
सुबह जो आँखों को मला
रंग आँखों से बहुत दूर नज़र आते थे
जाना उनका था खला ...

इससे पहले के कोई रंग जुदा हो जाये
इससे पहले के कोई रंग खुदा हो जाये

कुछ तो साथ लेके चलूँ
कुछ भूल जो पाऊँ ....
इक क्षितिज ओढ़ लूँ
उंकेर लूँ मैं धनक !!

धनक : इंद्रधनुष

संध्या

समय 


वो तो बस चलती रही 
अपनी राह ...बरसो बरस 
कहाँ फुरसत थी
पीछे मुड़ कर भी देख पाती 
हाथ मे लिए कुछ दाने
कब के हाथ से छूट चुके थे 
जाने कब पानी ने अपना रंग दिखाया
धूप अपना काम करती रही
और वो बस चलती रही ...
आज बरबस पीछे मुड़कर जो देखा

जिसे बंजर समझती रही
उस ज़मीन पर कुछ फूल खिल आए थे
आँखों मे रंग उतर आए थे उसकी

संध्या
ज़ख़ीरा भूला वो 


एक लिबास था 
उसके पास 
रंग बहुतेरे थे 
लाल, नीला, पीला ,हरा
हर उजास के लिए एक सधा रंग 

हल्के गहरे 
रंग मिलाकर ,नया रंग बनाने का 
हुनर भी पता था उसे 

एक पक्का रंग
कहीं भीतर अतल गहराईयों मे
छिपा रखा था उसने
जिनमे जब -तब डूबता उतराता रहता
ये रंग टंका था
जिस्म से उसके ...

शोख रंग जुदा होते हैं भला !

इस विस्मृति की बारिश का
क्या करे कोई ...
सब रंग धूल जाते हैं
आहिस्ता -आहिस्ता

कच्चे रंगों मे भीगे लिबास
ताक पर रखे थे
गाहे बगाहे चकाचौंध करते
चटख लिबास , आकर्षित करते उसे

कहाँ रख
भूल गया रे मन रंगरेज़
पक्के रंगों का ज़ख़ीरा ... ?

संध्या 
वजूद 


उसने 
चुन ली है एक दीवार 
अपने वजूद के आस-पास 

कभी 
आ जाती हैं 
कुछ सदायें चलकर
खुद ब खुद उसके पास

कभी
वह गुज़रना चाहती है
उन सदाओं के करीब से

लेकिन ,
सदायें चली जाती है
आ जाती हैं

और वजूद
खड़ा रह जाता है वहीं

संध्या
सजगता 



जब भी 
हाथ बढ़ाया 
उठाने को ... 

एक जोड़ी आँखें 
घूरती लगीं 

संध्या
राग बसंती 



पीत पर्ण 
झड़ने लगे हैं 
अंकुआई कोंपलों को 
बुलऔवा देने लगे हैं
ऋतु के फल छट गए हैं 
चटकते सूरज की 
नज़र लग गई है
जाम पर ;

पिघलने
लगे हैं शीत से ,
जम गए दोहे
बासन्ती राग गाती
कोई फगुनिया द्वार पर ,
पिय की बाट जोहे
अंगारे बरसने लगे हैं
घाम पर ;

केसरिया रंग से
टेसू उजास बिखरा रहा है
लगे हैं बौर फलने
आम पर
गदराईं कचनार की कलियाँ
नज़र, हर जम गई है
बासन्ती
शाम पर ! 


संध्या 
परवीन सुल्ताना जी को सुनते हुये (राग मारू विहाग, ख़याल मिश्र भैरवी और होरी गीत सुनाया उन्होने )

समय की 
सतरंगी तहरीर पर 
वो रागों से लिखरहीं थीं 
एक पुरातन कथा ,
झील की शांत
तरंगे दे रही थीं ताल
सूरदास के होरी गीत पर
जैसे उतर आया था बसंत
और जब आकार दिया
इंतज़ार को उन्होने
'मारू विहाग ' में
तो रोयाँ रोयाँ
लहक उठा हो जैसे
और 'मिश्र भैरवी ' मे
जैसे प्रेम का स्वरूप ही
जीवंत हो उठा हो ....
अद्भुत !



संध्या 
पिटारी समय की 


कोई पूछे गए प्रश्न का 
अनुत्तरित सा जवाब ...
जैसे आड़े वक़्तों के लिए
बचा कर रख ली गई
कोई उधड़ गई शतरंजी
या किसी पुरानी 
अधबुनी याद पर लगाए जाने 
के रख लिया गया कोई बटन 
कि,जिससे बंद किए जा सकें 
समय की कोटरों से झाँकते पेबन्द 
बहुत सारी छोटी छोटी डिबिया आवाज़ों की
जिन्हें सुना जा सके गाहे बगाहे
उनमे बंद रखे हुये हुंकारे, मुस्कान और चुटकुले
और जाने कितने खजाने
जिन्होने दिमाग की भूख को वक्त ब वक्त
किया अभिभूत ...
कुछ आधे अधूरे से बने शब्दो के हुजूम
जिन्हे रख दिया गया...
आज भी टकटकी लगाए से ...
एक लंबी यात्रा तय कर
रख ली जाती है अपेक्षाएं
आकांक्षाएं ....आधी अधूरी सी

वक्त के पिटारे मे
कैद कर दी गईं ......
झाँक जाती हैं ...
गाहे बगाहे !!

संध्या
टुकड़ों मे बंटा सच 


ज़िंदगी
बहुत करीब से गुज़री 
कुछ कीमत भी न मांगी थी उसने 
अपनी सी लगीं ,दो चमकीली
जीवंत आँखें ही तो थीं 

पर उस 
कुम्हलाई आवाज़ का सत्य
सुनाए जा रहे शब्दों से भारी क्यों हुआ ... ? 

और फिर ,
कई टुकड़ों मे बंटा सत्य ....

ज़िंदगी उन सब के
बीच छुपी मुसकुराती रही
पकड़ सको तो पकड़ लो
पकड़े रह सके क्या.... ?

ज़िंदगी की मियाद
किताब के किसी वरक मे
संभाल कर रखी जा सकती है क्या ?

इसके दरवाज़ों पर
कोई सांकल नहीं
फिर कैसे
भाग निकलती है यह ... ?

संध्या

सनद



कुछ वादे नहीं 
कुछ थोड़ी चमकती आँखों के संदेशे 
लकीरों से लकीरों का स्पर्श 
जानकर भी ,
कहीं मिलना नहीं इन्हें 
बहुत ही आसानी से भुला दी गई 
ध्वनियों का संगीत 

अरे अब ये भी कोई कहानी है भला ....

बस खुद को दिया भरोसे की शक्ल का वहम
ताकि... सनद रहे ....

संध्या
पुटरिया रंगो की  



रंग कुछ कम थे 
पुराने रंगो की पुटरिया खोली 
अलग अलग रंग संभाल रखे थे 
काम आ सकेंगे कभी ......

आखिर वो कौनसा रंग था..
अधखुला सा..
हरे रंग मे जैसे कासनी रंग मिल गया हो ..

मौसम-मौसम ही आखिर क्यों निकलते हैं रंग ?
जो हमेशा हरहराते रहते हैं उनका क्या ?

इतना आसान कहाँ रंगो मे सराबोर होना
कितनी यादें ... कितनी बातें ...हर बार वही
जितना भिगोते हैं
उतना ही टीस भी दे जाते हैं

चलो फिर से रंग लें और डूब जाएँ
किसी... रंग को अपना बनाने की ज़िद
(क्या होता है ऐसा कुछ?)
न... न ... फिर ये ज़िद नही ...
...बस पास से गुज़र जाएँ ......
आँख भर देख कर ......

और फिर आँखों मे भरे रंग
हाथों से कैसे.....छुए जा सकते है न .....


कता 


लगा, एक ही सांचे मे ढले हैं, बने हैं हम ,
डूबे ,हाँफे ,रुके हैं ज़रा, फिर चले हैं हम ! 

संध्या

डर



खुशबू बिखरा गया था कोई 
समेट,आँचल में बांध ली थी गाँठ 

गाँठ खोलने में डर सा लगता है अब .... 

संध्या
अजायब घर 


दुराव रखा सदा
बताया नही कभी
प्रेम किया सदा
जताया नही कभी

अपनी रुलाई
और कभी अपनी हंसी के बीच
अजूबा बना लिया खुद को

भावना के सत्य को 
इस कदर छुपाया
कि,उसके अस्तित्व पर किए गए शक को
खुद ही शक की नज़र से देखा अक्सर ...

मनुष्योतर होने के प्रयास मे
मनुष्यता को किया अनदेखा प्राय:
ऐसा कि,मानव होने पर होने लगे शुबहा ...

पत्थर होते चले जाने को
माना मानव होना
पर जब पत्थर पड़े
तो टूटने से न बचा पाया खुद को

अंतत:
हो गया तब्दील ......
एक अजायबघर में
जिसका तरजुमा नहीं ... !

संध्या
Like ·  · Promote ·
असीम तुम 

रंगों मे उकेरा 
रंग कुछ कम पड़ गए 
शब्द ढूँढते ही रह गए 
अर्थ ढल न पाये 
भावों में वो भाव ही न मिला 
जो नाम था 

पूरा तुम्हें रखते 
ऐसी जगह ही ना थी .......

संध्या