Sunday 14 June 2015



अप्रत्याशित



अब जब भी देती है वो कोई उत्तर
सर ऊँचा रहता है उसका हमेशा

सवालों में छुपे कटाक्ष ओर दुरभिसंधियों
का पता होता है उसे
अपनी ज़रूरतों के लिए दयनीय बने रहना
अब नहीं है स्वीकार उसे
सदियों से संभाल कर रखी जा रही भाषा और व्यवहार को
बखूबी अपनी ओर मोड़ना सीख लिया है उसने
प्रेम की यांत्रिक परिभाषा से कोसों दूर हो चुकी है वो
मूर्ख बनाने और बनने की बीच की
दोनों राहों का त्याग कर दिया है उसने

सिर्फ स्वीकार्य नहीं है उसे अनयाय ओर स्वार्थ के नाम पर
 की जा रही पक्षपात पूर्ण गतिविधियाँ
शरीर और मन के मान्य खाँचों को तोड़ डाला है उसने
पवित्रता की परिभाषा अब केवल
इरादों और घोषित रीति नीतियों के भरोसे नहीं चलने वाली है अब
ये अच्छी तरह जानती है वो ...

अब ज़रूरी होगा तुम्हारे लिए अपनी सुस्त रफ्तार को बदलना
अपने आराम और ऐश की चीज़ समझे जाने से इंकार है उसे

हो सके तो खुद से लड़ो पहले और
जिसे तुमने बनाया था अपने हाथों
नियमों की कढ़ाई में तलकर
जिसमें सिर्फ एक तरफ ही नियम तल पाये तुम
और भूल गए दूसरी तरफ तलना

सीख लो ठीक जगह खड़े होकर सवाल करना ...
अप्रत्याशित हो सकते हैं जवाब .....!!


संध्या 
तरतीब


जिये गए समय
और गुज़ार लिए समय की
तरतीब जब बाँधी गई

दक्षता और योग्यता को
मांझने के समय को बिताया
असमंजस में ...

रोज़ी -रोटी की दौड़ में
कतारों में लगे  -लगे बीता समय
अक्सर उम्मीदों का था
नक्शे ज़्यादा होते थे और होते थे अस्पष्ट भी
पहुँचने की जगह का
नहीं रहता था
मन से कोई ताल्लुक

अधर से कटा समय का  टुकड़ा
खड़ा था विस्थापित जड़ें लिए

जहाँ हारे
अक्सर वहीं कीं सफलताएं अर्जित
जो अप्राप्य लगा
उसी के पीछे ज़्यादा भागे

जीत की एक ही शर्त थी
दायित्व हार जाते अगर .......!


संध्या





एक प्रश्न



धीरे -धीरे बढ़ती जाती
भीतर की धधकती आग ....
एक तटस्थ भाव होता जाता कम ...

वो धीरज जो साधता रहा बरसों दृष्टि को
होता जा रहा कहीं गुम
जीतने होते जाते भार कम
उतना ही और जुड़ता जाता मन
अपने ही महवर पर घूमता हुआ

कहाँ -कहाँ निर्भर रहते भाव बोझ से दबे
कहाँ दंभ ने सर उठाया
और कहाँ कुचला गया दंभ का स्वर
और कभी बने शुतुरमुर्ग
करते रहे इंकार ही देखने से
सत्य का सिरा

क्या था जिसका थामा  था परचम... ?
भरम या आत्मछल...?

कितना वजन बढ़ा कितना हुआ कम
खुद में कितना बचा मैं .....


संध्या 



परिवर्तन


मैं देख रही हूँ इस पूरे तंत्र को
तंत्र मेंरहते हुये
लड़ रही हूँ इसके साथ
बिना अपनी बनावट में परिवर्तन की ज़िद लिए

सामने सां ,दाम ,दंड, भेद लिए
तैयार  खड़ी है सेना ,आक्रमण को तत्पर
आतुर बेधने को ,चक्रव्यूह बना ...

परंपराए बादल रही हैं
झील पर तन रही हैं जालियाँ
हट रहे हैं पेड़ ,सड़क के दोनों ओर से

मैंने भी बदल लिया है बालों को बनाने का तरीका
लेकिन नहीं बदल पाया मन ...
नसों का बहाव ,ओर दिल का धड़कना
मेरा चश्मा भी ...

वो एक लड़का मुझे देता है जगह
झील किनारे बेंच पर बैठने की... मुस्कुराते हुये

झील पर बहते पत्ते पर कुछ चीटीयाँ
ओर उनके मुँह में दबे हुये हैं दाने...

उम्मीद ,जुड़ाव  और प्रेम के बीच का रिश्ता
बता जाते हैं मुझे ...
कुछ भी नहीं बदला है मेरे दोस्त ....!

संध्या









स्टैंड बाइ मोड


हो सकता है
हों जब बहुत आहत आप
शकीरा के किसी गीत पर कर रहे हों नृत्य
आत्मा पर पड़ी घात की किरचें
पैरों के नीचे बना रही हों कोई आकृति
उन्मत्त ,मुग्ध हों अपनी कला पर ...

जब दिखा रहे हों संतृप्त
सुबह का सितारा ठीक चाँद के पास देखकर
पैरों के ठीक नीचे तपता रेगिस्तान नाप रहे हों
देह पर पड़ी संतृप्ति की बूँदें
छू भी न पाई हों आत्मा का सूखा
तन पर सजा फूल, पत्तियां ,पत्थर
आत्मा को रख दें आत्ममुग्धता की ताक पर
मुस्कान के गुलाब हाथों में थाम लें

जब स्तब्ध हो ,लटका दिये जाएँ निर्णय की सूली पर
बेबसी की ठंडी सलाखों की कैद में
असहायता की दलदल हिलाने भी न दे
हर मद बस देखने में हों समर्थ
ज़िंदगी की हर लय का स्वाद चख लेने के बाद

पा जाएँ ताकत हार कर जीतने की

और रख दें सारी कारीगरी' स्टैंड बाइ मोड'पर .....!


संध्या 
   

स्वप्न और वो



उसके सपनों का रंग अक्सर
तितलियों की तरह हुआ करता था
रंग बिरंगी बेखौफ उड़ती तितलीयाँ

सपनों का रास्ता भी सीधा सहल हुआ करता था
नुक्कड़ पर खड़े लड़कों के ढेर
और पान की दुकान उसमें नहीं हुआ करती थी
जब वो चलती थी सड़क पर तो
दूर तक पीछा करती ठहाकों की आवाज़
नहीं थी वहाँ ...

वो जानती थी जब वो बोलती थी तब ,
उसकी ज़बान हकला जाती थी
और जब चलती थी तो उसके एक पैर की लगजिश
उसे थोड़ा टेड़ा चलने को ....बाध्य कर देती थी

लेकिन उसके सपनों में वो बिल्कुल  साफ बोलती थी
और गर्दन तान कर मुस्कुराते हुये चलती थे
और लंगड़ाती भी ना थी

एक दिन उसके सपनों की समिधा बना दी गई थी
और उसे साथ फेरों के भीतर जकड़ दिया गया था
शपथ की देहरी के भीतर अब वो कैद थी
एक जोड़ी बाघ सी चमकती आँखें अब हमेशा उसके साथ थीं ....

पतीली, चमचे ,तवा और आग
बहते पानी की आवाज़ के साथ
आग के बनाते हुये रंगीन धूए का रंग
जो उसे तितलियों के  रंग से मिलता सा लगता था
उसे अक्सर मुट्ठी मे बांध लेती थी वो...

माँ के घर से लाये कपड़े की थेली के भीतर रखे
सात,लाख के चपेटे निकाल उन्हे सहलाती थी
और फिर रख देती थी यथावत ...

समय की धारा में जब एक दिन उसने
चपेटों को निकाला तो ,
कुछ रंग थेली में उभर आए थे
साथ रंगों के साथ चपेटों से सतरंगे चित्ते
उसकी उंगलियों की पोरों में उतर आए थे

लेकिन एक जोड़ी बाघ सी आँखें अब भी पीछे थीं उसके सतत
रंगीन धूए से उसकी आँखें धुंधला जाती हैं अक्सर....

एक टूटा चपेटा जोड़ने में वो अक्सर लगी रहती है
तितलियों के रंग उसे अब नहीं मिलते उन्हें रंगने के लिए ....


नींद और स्वप्न खूँटे पे  टँगे रहते हैं
रंग उसेअब ढूँढे नहीं मिलते ....!



संध्या











लफ्ज


लफ्ज-लफ्ज आवाज़ों के घेरे
बुनते रहते अपने अर्थ ,चुनते रहते मर्म ...

बार-बार कहे जाने वाले लफ्ज
क्या बदल लेते हैं अपना अर्थ...? ...
या अलग -अलग तरह से कहे जाते हैं
तो हो जाता है उनका वजन कम ...
या दोहराये जाते हैं कई -कई बार
अलग -अलग लोगों से
तो बदल लेते हैं रंग अपना...? ...

या आ जाता है मौसम के हिसाब से
उनकी तासीर में फर्क ...
या तय करती हैं परिस्थितियाँ
या समय -समय पर आ जाने वाले
चकित कराते मोड ,चोराहे ,या खाईयाँ
और कठिन पहाड़...
चढ़ नहीं पाते लफ्ज....?


या जब सान्द्र्ता ,लफ्जों के घोल की
होती है अपने चरम पर
हो जाते हैं संपृक्त ....
और आ जाते हैं साम्यावस्था में ....


नहीं... कभी नहीं बदलते ये अपना अर्थ ...सामर्थ्य....
बस केवल हो जाता है कम या थोड़ा ज़्यादा
इनका परिताप ....!


संध्या



    फर्क



वो उगाते हैं फूल
रंग बिरंगे
बिखेरते खुशबूयेँ
बनाते हैं शिल्प मिट्टी  के
माटी दिखाती है राह
फूल बिखेरते खुशबू

एक लिखता कविता
कभी कोई प्रश्न उठाती
उत्तर देती हुई कोई
खुशबू से तर कभी ....

कितने रंग ज़िंदगी के
लाते चमक आँखों में
इंद्रधनुष बिखेरते
 जीवन का .....

और एक वो
शक्ति और अधिकार से सजा
अपने आडंबर में क़ैद
पीड़ा देकर पाता हुआ सुख
चमक उसके आँखों मे भी आती
आत्मसंतोष की ....

गंदे रेंगते हुये कीड़े फैलते जाते
जहाँ से गुजरता वो ....!

संध्या





मेरे संकल्प बीज



हर दिन खुलती आँख ज्यों ही
एक नया ही आसमान होता सामने
आँखें सिर्फ दो
सामने कितने ही दृश्य बिन्दु  

कहीं अंधश्रधधा का आतंक
कहीं टूटे विश्वास की दरकन
कहीं त्वचा के नीचे दबी
कुंठा का मवाद
कहीं अतिरेक मन का
कहीं लिप्सा का घटाटोप
कहीं मुंहबाए खड़े भाव चक्षु
पूछते गंतव्य का सिरा ...

गुज़र जाना होता है हर दृश्य को चीरते हुये

खुली आँखें तनी गर्दन और
लिए द्रढता की पोटली लिए हाथों
बाहर निकलते ही
फिसल जाते लक्ष्य अक्सर

कानों में बजती चीखें
आतंक की स्याही
और अनकहे अनचीन्हे
षड्यंत्रों की बजबजाती आवाज़ें ...

निकल आती हूँ इन सबसे बाहर ,थोड़ी घायल
पर सलामत ...

अपनी पोटली में दबाये
अपने संकल्प बीज ....!


संध्या



     



पुनरावृति


कभी-कभी
रह जाती है एक जुगाली
नन्हें से एक लम्हे की
जो कभी का गुज़र चुका होता है
याद के घेरे पीछा नहीं छोड़ते
ज़िंदगी बस करती रहती है
उसकी पुनरावृति    !


संध्या 




अपना आकाश 



शुक्र है 
दिखता है तालाब और हरियाली 
खिड़की से बाहर 

वरना रीड़ मे उतर आते हैं अक्सर 
अंकों की जमा जोड़ 
मृत करते हैं किसी कविता की 
उगती संभावना को 

दफ्तर में कैद आवाज़ें 
चमगादड़ों की आवाज़ में तब्दील हो जाती हैं 
मंडराती हैं सर के ऊपर 

अपने सही जगह पर होने का अंदेशा 
मुझे अक्सर सालता रहता है 
एक वेतन की स्लिप 
तोड़ देती है सारे मुगालते...
अपनी दुनिया मुझे पुकारती है 
इस तरह दो दुनिया में बटे हम  

तलाशते हैं अपना आकाश ...! 


संध्या 

        






Friday 12 June 2015

नदी


नदी उफान पर थी

बस आश्चर्यचकित थी
जब बिखरी थी इंद्रधनुषी छटा
बिल्कुल न थे बादल
तब इतना उफान आखिर
आया कहाँ से ...

गुपचुप सी
भरती रही नदी
इतना कोलाहल लिए
उमगती रही नदी

किनारे खड़ी हूँ
उतार के इंतज़ार में

पानी की तुर्श धार से
घायल ,झिरझिर हो आए पत्थर
बताएंगे अपनी व्यथा
छितर आए शंख सुनाएंगे
अनकहे गीतों की धुन

शायद किसी सीपी ने
छिपा रखा हो मोती भी
अपने भीतर .....!!


संध्या




रफ्तार


हाथों के पास
काम बहुत था
चीज़ों को थामे रखने को
दरकार थी विशेष दक्षता

करना था हाथों को
यथेष्ट कभी खुरदरा
और कभी चिकना

समय की रफ्तार तेज़ थी
और अंदाज़ा लगाने की
कुछ कम

फिसलन थामने को हाथों को
करना था कुछ खुरदरा
खुरदरी सतह के लिए
चाहिए थी चिकनाई कुछ

साथ-साथ करने थे
रफ्तार के समीकरण हल
अवश्यंभावी था
कुछ न कुछ छूटते रहना
छूटता ही रहता

(रफ्तार ओर संतुलन साधते जीत अक्सर रफ्तार की ही हुई )


संध्या



बाज़ार


एक पूरा भीड़ भरा बाज़ार
सामानों से अटा बाज़ार
सामानों मे आदमी
आदमी मे भरता सामान
ओर यह रहा मुस्कान मेचिंग सेंटर
पता नहीं दुकान मे मुस्कान
या मुसकानों ने ओढ़ ली मुस्कान
धीरे धीरे समान धोता आदमी
सामान होता हुआ
सामान की भाषा बोलने लगता

फिर आदमी के अंदर से बोलता सामान  !


संध्या