Wednesday 29 April 2015

रोजनामचा (1)
...         आज एक बार फिर घेर लिया है सूरज को बादलों ने सुबह बिना धूप के मुस्कुरा रही है ,बारिश की बूँदों ने पूरी सड़क को घेर लिया है रज़ाई से निकालने में कदमों ने इंकार कर दिया है ,ज़मीन पर उतरने में |अक्सर ये होता है नीम सियाह सी सुबह में कि , ताक में रखे हुये  समय के कंचे बज उठते हैं , उन्हे तुम्हारे विभिन्न नामों से पुकारती हूँ ओर हर कंचा अपनी सुगंधी लिए रंग उठता है ... सूरज की रोशनी का यही तो कमाल है....पर कितना अजीब है न कि , जब ये कंचे किसी पराई दीवार पर भी चिपके नज़र आते हैं ....,तब उनका नाम उलट कर पुकारने को मन हो आता है सारे रंगों पर स्याही फेर देने को...मन निर्मोही ! गले में कुछ अटक सा जाता है कुछ टोटके तलाशता है मन ...बाहर जाकर आसमान में इंद्रधनुष देखती हूँ अगर दिख गया तो लौट  आएँगे सारे कंचों के गुम हुये रंग  ,और नहीं तो...तो... ... बस एक कप अदरक की चाय का टोटका ठीक रहेगा...वाह ! कैसी कैसी चापलूसी मन के  लिए ...खूब ...और फिर तुम्हारी याद अकेले कहाँ आती है साथ मे आते हैं चन्द्रकान्त देवताले और साहिर की ध्वनी तरंगें भी ..........फिर सारे कंचों को समेट ....कर  कपड़े की थैली में रख देना और उन्हें उन्ही के नामों से सिलसिलेवार पुकारना और ये मान कर चलना कि , जो पराई दीवार पर है कंचे वो तो हैं ही नहीं दरअसल ! कंचों की आवाज़ के स्पंदन को दिन भर गुंजाना है इसी ऊर्जा से दिन भुनाना  है मुझे   ....गले में अटक गए कुछ को रखना है शब्दों की गठरी बना कर जीवंत  डायरी के पन्नो के लिए ....|कहीं कंचों का रंग न बदल जाये कहीं...शुक्र है आँसुओं का रंग नही होता वरना टंक जाता कंचों पर ......|
           तुम्हारी आवाज़ की सतलहरियाँ बज उठती है कानों में...और फिर एक पूरे दिन को इन मुए कंचों की दरकार नहीं रह जाती ...|नगर निगम के चुनावी शोर में बाकी सभी आवाज़ें दब जाती है..ऑफिस के पार्किंग प्रांगण में एक कुतिया धूप में पसरी है उसकी सारे  आठ पिल्ले उससे चिपके हैं ,मुझे गाड़ी से उतरते देख बन्नो ...पुंछ  हिलाती आती है ..उसे पता है ब्रेड मिलने वाला है ,एक दूध की थैली भी साथ लाई हूँ...और एक कटोरी भी उसे खाते देख उसकी तृप्ति का तो पता नहीं..पर मैं तृप्त भाव से निहारती हूँ उसे ओर उसके पिल्लों को |
            सड़कों पर पसरी गाडियाँ दिन -ब -दिन बढ़ती जाती हैं विकास काढांचा खुली सड़कों और गढढ़ों मे तब्दील होता हुआ दिखता है | एक पेड़ रेलवे क्रोससिंग  पर बाहें पसारे रुकने का इशारा सा करता है ,एक बड़ा सा होर्डिंग लगा है जिस पर एक बड़ा सा बांग्ला है जिसमे वैभव का नक्शा लुभा रहा है ...........उसके ठीक नीचे एक झुग्गी जैसे उसकी खिल्ली उड़ा सी रही है...वैभव बढ़ते भंडार का खोखलापन और खाली होता जाता मन ॥...!
भोपाल के गली, मोहल्ले, पटिये, झील जहाँ एक लंबा समय गुज़ारा यहाँ नहीं दिखाई देते ,गगञ्चुंभी इमारतों के बीच आसमान भी देखने को ढूँढना पड़ता है ....!
        मैं अपना आसमान अपने साथ लेकर चलती हूँ और दिन के इस आखरी पड़ाव पर  अपनी डायरी के पन्ने में उतार  देती हूँ अगले दिन की जद्दोजहद के साथ के लिए नींद वाली रात का इंतज़ार करती हूँ ......!


रोजनामचा  (4)
                  यूँ तो हर शहर का अपना मिजाज होता है ,पर जहाँ कोई आपका अपना इंतज़ार कर रहा होता है तो उस शहर की बात ही अलग होती है ना... ये नई उम्र के युवा(बिटिया) जिनके लिए समय उतना ही कीमती है जितनी उन्हे अपनी ज़िंदगी प्यारी होती है | सुबह से शाम तक अपनी ऊर्जा को चरम तक निचोड्ते जैसे नहीं जानते थकान का नाम भी और सप्ताहांत पर अपनी आय का एक बड़ा हिस्सा खर्च कर भूल जाना चाहते हैं अपने काम के तनाव को साथ ही सारे रिश्ते पूरी शिद्दत से निभाते....मन सचमुच गर्व से भर आया है |....शहर की भीढ़ रफ्तार ओर ऊर्जा के साथ कदमताल करते अपने शहर की याद घना जाती है |
                 अपने शहर मे प्रविष्ट करते ही कड़ी धूप स्वागत करती है ,गर्मी अपने शबाब पर है यात्रा की थकान घर के ख़याल मात्र से काफ़ूर  हो जाती है ,काम की थकान रोज़मर्रा की एकरसता से भागा मन फिर -फिर अपने ठाँव पर ही आराम पाना चाहता है ...सच कहते है गुलज़ार भी की ,ये आदतें भी कितनी अजीब होती हैं...ओर ये बंजारा मन ...? घर पर बेटू जी एक ग्लास ठंडा पानी देता है ,पतिदेव झट मुझे घर छोड़ कर ऑफिस रवाना होते हैं |दोस्त हाल हवाल पूछते हैं कहाँ हो ...? गुमशुदा ....और कोई है जो आपको हर हाल में याद रखता है रखना चाहता है ,बस चाहता है आप हर हाल में खुश रहें एक ऐसा दोस्त लगावट वाला रिश्ता जिसे शायद आप कोई नाम देना नहीं चाहते हैं |कोई नाम सुबह की गुनगुनी धूप सा ठंडी शाम सा इत्मीनान सी रात सा जिसे आप अपने सक्षिप्त प्रवास में भूले रहना चाहते हैं |और सिर्फ ओर सिर्फ रहना चाहते हैं अपने साथ...मगर नज़र का फेर ...कलम में ऐसा उतारने का खवाब पाले रहते हैं कि , हर नज़ारा अपने परिपूर्ण फ्रेम में ही दिखाई देता है खुद का अस्तित्व भी जैसे इसी खांचे में फिट हुआ नज़र आता है |
                 मोबाइल पर व्हाट्टसप्प पर बिटिया से जुड़े रहना सुकून देता है ,पर वहाँ की तेज़ रफ्तार ज़िंदगी देख लेने के बाद और स्वयं के प्रति लापरवाह इस युवा नस्ल की जीवनशैली देख लेने के बाद मन आशंकाओं से भी घिर जाता है ... फिर लगता है ये ही इनका जीवन जीने का तरीका है हमारे धीमी रफ्तार जीवन से काफी अलग ये जानते हैं अपनी रक्षा करना ,जीना और खुश रहना  |यही सोचकर धीरे- धीरे  सामान्य हो जाती हूँ |
               कुछ है जो बदल रहा है शहर को सड़कों को......चोड़ी होती सड़के कम होते पेड़ ,गाड़ियों की लंबी लंबी कतारे ,बढ़ता अधैर्य .... शायद ही कोई दिन होता हो जब सड़क पर होता हुआ कोई एक्सिडेंट न देखा हो ,ओर शायद इसलिए जब ऑफिस से लौटती हूँ हूँ तो ये काली सी सड़क लाल होती दिखाई देती है मुझे लीलती हुई ....
इंच दर इंच ट्रेफ़्फ़िक जाम में  फसी  रेंगती हुई ....घर जाने का सुखद एहसास सब कुछ सहने को मजबूर कर देता है |जिस रफ्तार से सोश्ल मीडिया पर दोस्तों की संख्या बढ़ रही है उसी रफ्तार से अवसाद और अकेलापन भी जैसे बढ़ रहा है ॥भावुक मन अपने जंजाल बढ़ाता नज़र आता है हर ओर .... जिसे कभी तो किसी बीमारी का नाम देने का मन करता है ... या ये कोई किसी नई नस्ल का "कायांतरण " है मात्र ?
घर पर टेबल पर रखी हुई डी एहच  लारेंस की" संस  एंड लवर्स "के किसी पृष्ठ पर रखा बुक मार्क का चेहरा मुस्कुरा रहा है कहता हुआ...."बिटिया से मिलने गई तो संस एंड लवर्स को भूल ही गई ? क्यों ? ...." लो इनकी शिकायतें भी सुनो अब....मैं होले से मुस्कुरा देती हूँ ....|पानी की आधी भारी बोटल जैसी छोड़ गई थी जल्दी में वैसी ही पड़ी है दो टिपके धर देती हूँ और एक अर्ध चंद्र बना देती हूँ अब मुस्कुरा रही है बोटल " शुक्र है हमारी भी सुध ली बन्नो ने " | जैसे हर समान बात सा कर रहा है मुझसे ...कैसा चमत्कार बेणुगोपाल मुस्कुरा रहे हैं पन्ने फड़फड़ा कर अपनी उपसतिथी दर्ज करा रहे हैं ... वेणुगोपाल की कविताएँ और डी एच  लारेंस का ...मोकटेल ..(कभी पी देखिएगा )  |
                  वक्त के साथ खुद को बदलने की कवायद करता हुआ मन ,थकान में डूबा सोच की गठरी बंधे रहना कब छोड़ेगा ? नींद का इंतज़ार .....!


                 
                   

Sunday 26 April 2015


रोजनामचा (5)
       

    मौसम किस तरह दबे पाँव अपना रंग बदल लेता है ,बिना ज़रा सी आहट किए अभी सर्द था फिर नीम गर्म और अब लगता है की जैसे कभी ठंडा भी था क्या ....तुर्श धूप का झोका मुझे उठाता है  खिड़की से झाँकता हुआ और एक किरण जैसे सीधी आँख मे पड़ती है मुसकुराती हुई....काम समय पर ख़त्म करने की आवाज़ें थोड़ा और सोने के लालच को दूर  भगा देती हैं ....|
                किसी का सुख किसी के लिए दुख लिए होता है जैसे बंधी मुठ्ठियों मे बंधे  सुख की ओर टकटकी लगाए चार नयन ताक मे ही बैठे होते हैं कि, जाने किस ओर ये मुट्ठी खुलेगी ,पता नहीं कब ये इतने सुशिक्षित आत्मविश्वासी मन इतने नन्हें नन्हें सुखो की बाट जोहने लगते हैं... और इतने स्वार्थी हो उठते हैं ...और ये मुठ्ठिया ? इनको कौन हक दे देता है कहीं भी हाथ भर बाट देने का ? जैसे एक सोच समझ कर किए गए प्रेम की जकड़न में फसा लिया गया हो और मन बस देखता ही रह जाता है.....इतना कमज़ोर होता है क्या मन ? कभी लगता है अगर जिससे हम प्रेम करते हैं अपना मानते हैं उस ओर सोचते हैं तो कहीं और भी कुछ अन्याय होता महसूस करते हैं या ये सब बस मन के खेल हैं...जब तक जहाँ तक कोई खेल ले ...?...इन सब बतकही से दूर अपने काम मे जूझ जाती हूँ  |
                 तेज़ धूप का असर है जो ये चमक आँखों मे पड़   रही है... रोज़ किसी नए ....बनती इमारत का श्रीगणेश होता दिखाई देता है...कहाँ से इतना पानी आएगा ...इतनी सीमेंट ....और दिन पर दिन बढ़ते हुये लोग
आखिर एक दिन ये धरती कह ही देगी अब बस ..... नहीं झेला जाता मुझसे इतना बोझ ....|गाड़ी पार्क कर उतरती ही हूँ कि एक हल्का सा चक्कर महसूस करती हूँ.....अरे ये क्या...सच में कल से थोड़ा कुछ खा कर ही निकलना होगा वरना   ....कुर्सी पर बैठते ही मोबाइल घनघना उठता है कभी कोई दोस्त कभी पतिदेव...भूकंप महसूस हुआ क्या ...?...ओह ...! तो ये भूकंप का हल्का सा एहसास था चक्कर नही ...और मैं ऐसे ही कुछ भी सोचने लग पड़ी ,फिर तो नेपाल ,काठमाण्डू ,बिहार, देहली और सारे भारत से भूकंप की खबरें आने लगी ....सोचती हूँ ये जो मुझे अजीब से ख़याल आ रहे थे ये कोई पूर्वाभास था ...जो ज़मीन कह रही थी ?
                  काम को लेकर अजीब सा माहौल   है ऑफिस में जैसे सब अपने अपने स्वार्थ के आगे झुके हुये हैं कोई भी देखने को तैयार ही नही है किसी की मजबूरी और पीठ पीछे अजीब अजीब साजिशें अपनी कानाफूसियाँ कर रही हैं अजनबी आवाज़ें दस्तक दे रही हैं  ....अगर कोई लक्ष है तो वो है पैसा .... जहाँ से भी मिले जैसे भी मिले ....इसी सी सारे समीकरण तय होने हैं कौनसा कर्मचारी किसके पास जाएगा और कौनसा...वार्ड  कितनी आमदनी वाला है ...जहाँ जाने से फायदा मिल सकेगा |अगर आप न चाह कर भी इन सारी बिछी बिसातों में से किसी न किसी के खेल मे चाहे अनचाहे गिरफ्तार हो ही जाते हैं ,एक अनचाही लड़ाई लड़ते हुये  |
                  टेबल पर लिखते हुये  ,हल्का से  बाज़ू की ओर नज़र पड़ती है तो ...लाफिंग  बुधधा जैसे पीठ पर गठरी लादे हुये तैयार खड़े होते हैं...मुस्कुरा कर पूछती हूँ उनसे "आज क्या है मेरे लिए इसमे "? अरे वाह ! पहले मुझे मेरा इनाम दो फिर खोलूंगा गठरी " " लो आपको भी भूत चड़ गया क्या "?"सब के सब बेताल हुये जा रहे हैं
इन्हे पता ही नहीं मुझे मेरा आज का हिस्सा मिल चुका है  "|और जैसे मुझे आज सुबह के सवाल का जवाब भी मिल जाता है अपना अपना हिस्सा है ,अपना अपना किस्सा है और इस भूकंप ने भी बताया कल क्या होगा किसको पता .........."लव इन द टाइम ऑफ कोलेरा "मारखेज अपने पन्नों मे मुस्कुरा रहे है ....जीवंतता की मोहर लगा रहे हैं ....सभी अपनी अपनी कमजोरियों और मज्बूतियों के साथ डटे हैं !
              रात जैसे लंबी हो गई है सुबह जल्दी आ जाती है आजकल ...उसी किरण से मिलना है सुबह उठ कर ।मगर एक अलग अंदाज़ से ...बिना सवाल...पूछे जवाबों को जीते हुये ...धन्यवाद यारम  !आज मगर नींद भी इंतज़ार मे है .....|


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