रोजनामचा (1)
... आज एक बार फिर घेर लिया है सूरज को बादलों ने सुबह बिना धूप के मुस्कुरा रही है ,बारिश की बूँदों ने पूरी सड़क को घेर लिया है रज़ाई से निकालने में कदमों ने इंकार कर दिया है ,ज़मीन पर उतरने में |अक्सर ये होता है नीम सियाह सी सुबह में कि , ताक में रखे हुये समय के कंचे बज उठते हैं , उन्हे तुम्हारे विभिन्न नामों से पुकारती हूँ ओर हर कंचा अपनी सुगंधी लिए रंग उठता है ... सूरज की रोशनी का यही तो कमाल है....पर कितना अजीब है न कि , जब ये कंचे किसी पराई दीवार पर भी चिपके नज़र आते हैं ....,तब उनका नाम उलट कर पुकारने को मन हो आता है सारे रंगों पर स्याही फेर देने को...मन निर्मोही ! गले में कुछ अटक सा जाता है कुछ टोटके तलाशता है मन ...बाहर जाकर आसमान में इंद्रधनुष देखती हूँ अगर दिख गया तो लौट आएँगे सारे कंचों के गुम हुये रंग ,और नहीं तो...तो... ... बस एक कप अदरक की चाय का टोटका ठीक रहेगा...वाह ! कैसी कैसी चापलूसी मन के लिए ...खूब ...और फिर तुम्हारी याद अकेले कहाँ आती है साथ मे आते हैं चन्द्रकान्त देवताले और साहिर की ध्वनी तरंगें भी ..........फिर सारे कंचों को समेट ....कर कपड़े की थैली में रख देना और उन्हें उन्ही के नामों से सिलसिलेवार पुकारना और ये मान कर चलना कि , जो पराई दीवार पर है कंचे वो तो हैं ही नहीं दरअसल ! कंचों की आवाज़ के स्पंदन को दिन भर गुंजाना है इसी ऊर्जा से दिन भुनाना है मुझे ....गले में अटक गए कुछ को रखना है शब्दों की गठरी बना कर जीवंत डायरी के पन्नो के लिए ....|कहीं कंचों का रंग न बदल जाये कहीं...शुक्र है आँसुओं का रंग नही होता वरना टंक जाता कंचों पर ......|
तुम्हारी आवाज़ की सतलहरियाँ बज उठती है कानों में...और फिर एक पूरे दिन को इन मुए कंचों की दरकार नहीं रह जाती ...|नगर निगम के चुनावी शोर में बाकी सभी आवाज़ें दब जाती है..ऑफिस के पार्किंग प्रांगण में एक कुतिया धूप में पसरी है उसकी सारे आठ पिल्ले उससे चिपके हैं ,मुझे गाड़ी से उतरते देख बन्नो ...पुंछ हिलाती आती है ..उसे पता है ब्रेड मिलने वाला है ,एक दूध की थैली भी साथ लाई हूँ...और एक कटोरी भी उसे खाते देख उसकी तृप्ति का तो पता नहीं..पर मैं तृप्त भाव से निहारती हूँ उसे ओर उसके पिल्लों को |
सड़कों पर पसरी गाडियाँ दिन -ब -दिन बढ़ती जाती हैं विकास काढांचा खुली सड़कों और गढढ़ों मे तब्दील होता हुआ दिखता है | एक पेड़ रेलवे क्रोससिंग पर बाहें पसारे रुकने का इशारा सा करता है ,एक बड़ा सा होर्डिंग लगा है जिस पर एक बड़ा सा बांग्ला है जिसमे वैभव का नक्शा लुभा रहा है ...........उसके ठीक नीचे एक झुग्गी जैसे उसकी खिल्ली उड़ा सी रही है...वैभव बढ़ते भंडार का खोखलापन और खाली होता जाता मन ॥...!
भोपाल के गली, मोहल्ले, पटिये, झील जहाँ एक लंबा समय गुज़ारा यहाँ नहीं दिखाई देते ,गगञ्चुंभी इमारतों के बीच आसमान भी देखने को ढूँढना पड़ता है ....!
मैं अपना आसमान अपने साथ लेकर चलती हूँ और दिन के इस आखरी पड़ाव पर अपनी डायरी के पन्ने में उतार देती हूँ अगले दिन की जद्दोजहद के साथ के लिए नींद वाली रात का इंतज़ार करती हूँ ......!
... आज एक बार फिर घेर लिया है सूरज को बादलों ने सुबह बिना धूप के मुस्कुरा रही है ,बारिश की बूँदों ने पूरी सड़क को घेर लिया है रज़ाई से निकालने में कदमों ने इंकार कर दिया है ,ज़मीन पर उतरने में |अक्सर ये होता है नीम सियाह सी सुबह में कि , ताक में रखे हुये समय के कंचे बज उठते हैं , उन्हे तुम्हारे विभिन्न नामों से पुकारती हूँ ओर हर कंचा अपनी सुगंधी लिए रंग उठता है ... सूरज की रोशनी का यही तो कमाल है....पर कितना अजीब है न कि , जब ये कंचे किसी पराई दीवार पर भी चिपके नज़र आते हैं ....,तब उनका नाम उलट कर पुकारने को मन हो आता है सारे रंगों पर स्याही फेर देने को...मन निर्मोही ! गले में कुछ अटक सा जाता है कुछ टोटके तलाशता है मन ...बाहर जाकर आसमान में इंद्रधनुष देखती हूँ अगर दिख गया तो लौट आएँगे सारे कंचों के गुम हुये रंग ,और नहीं तो...तो... ... बस एक कप अदरक की चाय का टोटका ठीक रहेगा...वाह ! कैसी कैसी चापलूसी मन के लिए ...खूब ...और फिर तुम्हारी याद अकेले कहाँ आती है साथ मे आते हैं चन्द्रकान्त देवताले और साहिर की ध्वनी तरंगें भी ..........फिर सारे कंचों को समेट ....कर कपड़े की थैली में रख देना और उन्हें उन्ही के नामों से सिलसिलेवार पुकारना और ये मान कर चलना कि , जो पराई दीवार पर है कंचे वो तो हैं ही नहीं दरअसल ! कंचों की आवाज़ के स्पंदन को दिन भर गुंजाना है इसी ऊर्जा से दिन भुनाना है मुझे ....गले में अटक गए कुछ को रखना है शब्दों की गठरी बना कर जीवंत डायरी के पन्नो के लिए ....|कहीं कंचों का रंग न बदल जाये कहीं...शुक्र है आँसुओं का रंग नही होता वरना टंक जाता कंचों पर ......|
तुम्हारी आवाज़ की सतलहरियाँ बज उठती है कानों में...और फिर एक पूरे दिन को इन मुए कंचों की दरकार नहीं रह जाती ...|नगर निगम के चुनावी शोर में बाकी सभी आवाज़ें दब जाती है..ऑफिस के पार्किंग प्रांगण में एक कुतिया धूप में पसरी है उसकी सारे आठ पिल्ले उससे चिपके हैं ,मुझे गाड़ी से उतरते देख बन्नो ...पुंछ हिलाती आती है ..उसे पता है ब्रेड मिलने वाला है ,एक दूध की थैली भी साथ लाई हूँ...और एक कटोरी भी उसे खाते देख उसकी तृप्ति का तो पता नहीं..पर मैं तृप्त भाव से निहारती हूँ उसे ओर उसके पिल्लों को |
सड़कों पर पसरी गाडियाँ दिन -ब -दिन बढ़ती जाती हैं विकास काढांचा खुली सड़कों और गढढ़ों मे तब्दील होता हुआ दिखता है | एक पेड़ रेलवे क्रोससिंग पर बाहें पसारे रुकने का इशारा सा करता है ,एक बड़ा सा होर्डिंग लगा है जिस पर एक बड़ा सा बांग्ला है जिसमे वैभव का नक्शा लुभा रहा है ...........उसके ठीक नीचे एक झुग्गी जैसे उसकी खिल्ली उड़ा सी रही है...वैभव बढ़ते भंडार का खोखलापन और खाली होता जाता मन ॥...!
भोपाल के गली, मोहल्ले, पटिये, झील जहाँ एक लंबा समय गुज़ारा यहाँ नहीं दिखाई देते ,गगञ्चुंभी इमारतों के बीच आसमान भी देखने को ढूँढना पड़ता है ....!
मैं अपना आसमान अपने साथ लेकर चलती हूँ और दिन के इस आखरी पड़ाव पर अपनी डायरी के पन्ने में उतार देती हूँ अगले दिन की जद्दोजहद के साथ के लिए नींद वाली रात का इंतज़ार करती हूँ ......!