Sunday 18 May 2014

बस चाहिए थोड़ी सी जगह 
उन आवाज़ों मे ,जो चुप रही आईं
मेरे यादों का अनंत हुजूम 
उनके साथ ही साथ चल रहा है...
और शामिल कर लो 
अपनी उसी चुप्पी में..... 

झील के साथ साथ चलते हुये 
तेज़ बारिश मे भीगती झील का 
अनंत सौंदर्य निहारते तुम -हम 
अंदर से भीग कर भी
कहाँ से रह गए थे अनभीगे से
ठीक वहीं ..उस जगह पर
आज तक प्रतीक्षारत
उस छप्पर के ठीक नीचे ...

तुम साया हो
उस गहराए पेड़ की
और मैं तेज़ पड़ रही
बारिश की बूँदों की बौछार
जैसे उस अधूरी बात के
पूरे होने के इंतज़ार सा...
जिसे अब कोई मोहलत नही चाहिए ...... !

(उस अधूरे से दिन के नाम ... जो आज भी खड़ा है वहीं ....प्रतीक्षारत ....)


संध्या 
प्रोमिथियस 

क्या तुम्हें 
ये आग नही दिखाई देती 
जो ज्वाला बन पेट में धधकती है 
रोटी पकाती उंगलियों मे 
उभर आती है गाँठ बन 
और आँखों मे उबल पड़ती है 
मेरे यकीन मे उतर आती है ........

आग ढूँढने
तुम कहाँ चले गए थे
प्रोमिथियस ...!

संध्या
क्या मानी हैं?'एतबार' और क्या 'उम्मीद' ,
कितने आराम से हर लफ्ज परे करता है ! 

संध्या

राजकिशोर राजन की नूतन कवितायेँ - Apni Maati Quarterly E-Magazine

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