Thursday 22 October 2015

ये मेरी जेब में पड़ा सिक्का
कीमती इतना जैसे होना तुम्हारा
इसके दोनों तरफ 'हेड' अंकित हों
ऐसा भी नहीं
786 भी नही लिखा इस पर
फिर भी ,बनक ऐसी
जैसे छू आया हो चाँद को
खोने का ख़ौफ़ इतना बड़ाये मेरी जेब में पड़ा सिक्का
कीमती इतना जैसे होना तुम्हारा
इसके दोनों तरफ 'हेड' अंकित हों
ऐसा भी नहीं
786 भी नही लिखा इस पर
फिर भी ,बनक ऐसी
जैसे छू आया हो चाँद को
खोने का ख़ौफ़ इतना बड़ा
कि,नींदें हर ले
कोई दिखाता मुझे बार -बार
खनखनाता अपनी जेब
पर दिखता परछांई सा कुछ वहाँ
आत्मा की उजास पर
मेरी चोर जेब में टंका
चाँद सा सिक्का ।

Thursday 8 October 2015

जैसे बूँदें
धुप से निकले
छूने ज़मीन को 
ठीक वेसे ही निकलना
जीवन की तंग गलियों से
छूना अंतस की 
ज़मीन को निर्द्वंद्व....

पत्तों को निथार कर 
टपकती फुहारें ठहरती 
रूकती अपनी बूंदों के बीच
संभालतीं अपना पृष्ठ तनाव
आतुर पहुँचने को अपने 
गंतव्य की और जैसे ....
कुछ देर ठहरना, करना प्रतीक्षा
 कोर पर ठहरी बूँद
ज्यों ठहर करती प्रतीक्षा 
आती हुई दूसरी बूँद का ....
जाते हुए अपने 
गंतव्य को .....

पाने अपना ध्येय चरम ...!

संध्या 
अम्मा 
जब भी करती थी बिदा
जाने कितनी गठरियाँ 
बाँध धर देती थी संदूक में 
सारे काम निपटाकर 
थोडा कुछ खा पीकर 
भंडारे में खोलती थी संदूक
माँ की सोंधी सी महक
हर गठरी से लहक उठती थी
रंग बिरंगे चपेटे की गठरी 
रंगीन तितली से हाथों में चिपक जाते थे ....
साड़ियों के बीच छुपे सिक्के 
कैसे पता होता था माँ को
उसकी चोर ज़रूरतों का
एक ज़िंदगी जिसमे थीसांसे
स्पंदन सपनो की विरासतें
रेत के टीले सुनहरी सफ़ेद फ्रॉक गुलाबी रिबन सुनहरी
कामदार मोजड़ी पथ्थर की 
असंख्य मालाएं ...
दुलार राखी का स्पर्श पापा 
की किताब की खुशबू ...

साल दर साल 
अपनी जगह बदलता 
अपना रूप भी बदलता 
पर जब भी खोलती संदूक
यादों के पिटारे साथ चले आते गठरियों की महक लिए
जिसे सिर्फ वो जानती 
और ये संदूक ....

संध्या

Sunday 14 June 2015



अप्रत्याशित



अब जब भी देती है वो कोई उत्तर
सर ऊँचा रहता है उसका हमेशा

सवालों में छुपे कटाक्ष ओर दुरभिसंधियों
का पता होता है उसे
अपनी ज़रूरतों के लिए दयनीय बने रहना
अब नहीं है स्वीकार उसे
सदियों से संभाल कर रखी जा रही भाषा और व्यवहार को
बखूबी अपनी ओर मोड़ना सीख लिया है उसने
प्रेम की यांत्रिक परिभाषा से कोसों दूर हो चुकी है वो
मूर्ख बनाने और बनने की बीच की
दोनों राहों का त्याग कर दिया है उसने

सिर्फ स्वीकार्य नहीं है उसे अनयाय ओर स्वार्थ के नाम पर
 की जा रही पक्षपात पूर्ण गतिविधियाँ
शरीर और मन के मान्य खाँचों को तोड़ डाला है उसने
पवित्रता की परिभाषा अब केवल
इरादों और घोषित रीति नीतियों के भरोसे नहीं चलने वाली है अब
ये अच्छी तरह जानती है वो ...

अब ज़रूरी होगा तुम्हारे लिए अपनी सुस्त रफ्तार को बदलना
अपने आराम और ऐश की चीज़ समझे जाने से इंकार है उसे

हो सके तो खुद से लड़ो पहले और
जिसे तुमने बनाया था अपने हाथों
नियमों की कढ़ाई में तलकर
जिसमें सिर्फ एक तरफ ही नियम तल पाये तुम
और भूल गए दूसरी तरफ तलना

सीख लो ठीक जगह खड़े होकर सवाल करना ...
अप्रत्याशित हो सकते हैं जवाब .....!!


संध्या 
तरतीब


जिये गए समय
और गुज़ार लिए समय की
तरतीब जब बाँधी गई

दक्षता और योग्यता को
मांझने के समय को बिताया
असमंजस में ...

रोज़ी -रोटी की दौड़ में
कतारों में लगे  -लगे बीता समय
अक्सर उम्मीदों का था
नक्शे ज़्यादा होते थे और होते थे अस्पष्ट भी
पहुँचने की जगह का
नहीं रहता था
मन से कोई ताल्लुक

अधर से कटा समय का  टुकड़ा
खड़ा था विस्थापित जड़ें लिए

जहाँ हारे
अक्सर वहीं कीं सफलताएं अर्जित
जो अप्राप्य लगा
उसी के पीछे ज़्यादा भागे

जीत की एक ही शर्त थी
दायित्व हार जाते अगर .......!


संध्या





एक प्रश्न



धीरे -धीरे बढ़ती जाती
भीतर की धधकती आग ....
एक तटस्थ भाव होता जाता कम ...

वो धीरज जो साधता रहा बरसों दृष्टि को
होता जा रहा कहीं गुम
जीतने होते जाते भार कम
उतना ही और जुड़ता जाता मन
अपने ही महवर पर घूमता हुआ

कहाँ -कहाँ निर्भर रहते भाव बोझ से दबे
कहाँ दंभ ने सर उठाया
और कहाँ कुचला गया दंभ का स्वर
और कभी बने शुतुरमुर्ग
करते रहे इंकार ही देखने से
सत्य का सिरा

क्या था जिसका थामा  था परचम... ?
भरम या आत्मछल...?

कितना वजन बढ़ा कितना हुआ कम
खुद में कितना बचा मैं .....


संध्या 



परिवर्तन


मैं देख रही हूँ इस पूरे तंत्र को
तंत्र मेंरहते हुये
लड़ रही हूँ इसके साथ
बिना अपनी बनावट में परिवर्तन की ज़िद लिए

सामने सां ,दाम ,दंड, भेद लिए
तैयार  खड़ी है सेना ,आक्रमण को तत्पर
आतुर बेधने को ,चक्रव्यूह बना ...

परंपराए बादल रही हैं
झील पर तन रही हैं जालियाँ
हट रहे हैं पेड़ ,सड़क के दोनों ओर से

मैंने भी बदल लिया है बालों को बनाने का तरीका
लेकिन नहीं बदल पाया मन ...
नसों का बहाव ,ओर दिल का धड़कना
मेरा चश्मा भी ...

वो एक लड़का मुझे देता है जगह
झील किनारे बेंच पर बैठने की... मुस्कुराते हुये

झील पर बहते पत्ते पर कुछ चीटीयाँ
ओर उनके मुँह में दबे हुये हैं दाने...

उम्मीद ,जुड़ाव  और प्रेम के बीच का रिश्ता
बता जाते हैं मुझे ...
कुछ भी नहीं बदला है मेरे दोस्त ....!

संध्या









स्टैंड बाइ मोड


हो सकता है
हों जब बहुत आहत आप
शकीरा के किसी गीत पर कर रहे हों नृत्य
आत्मा पर पड़ी घात की किरचें
पैरों के नीचे बना रही हों कोई आकृति
उन्मत्त ,मुग्ध हों अपनी कला पर ...

जब दिखा रहे हों संतृप्त
सुबह का सितारा ठीक चाँद के पास देखकर
पैरों के ठीक नीचे तपता रेगिस्तान नाप रहे हों
देह पर पड़ी संतृप्ति की बूँदें
छू भी न पाई हों आत्मा का सूखा
तन पर सजा फूल, पत्तियां ,पत्थर
आत्मा को रख दें आत्ममुग्धता की ताक पर
मुस्कान के गुलाब हाथों में थाम लें

जब स्तब्ध हो ,लटका दिये जाएँ निर्णय की सूली पर
बेबसी की ठंडी सलाखों की कैद में
असहायता की दलदल हिलाने भी न दे
हर मद बस देखने में हों समर्थ
ज़िंदगी की हर लय का स्वाद चख लेने के बाद

पा जाएँ ताकत हार कर जीतने की

और रख दें सारी कारीगरी' स्टैंड बाइ मोड'पर .....!


संध्या 
   

स्वप्न और वो



उसके सपनों का रंग अक्सर
तितलियों की तरह हुआ करता था
रंग बिरंगी बेखौफ उड़ती तितलीयाँ

सपनों का रास्ता भी सीधा सहल हुआ करता था
नुक्कड़ पर खड़े लड़कों के ढेर
और पान की दुकान उसमें नहीं हुआ करती थी
जब वो चलती थी सड़क पर तो
दूर तक पीछा करती ठहाकों की आवाज़
नहीं थी वहाँ ...

वो जानती थी जब वो बोलती थी तब ,
उसकी ज़बान हकला जाती थी
और जब चलती थी तो उसके एक पैर की लगजिश
उसे थोड़ा टेड़ा चलने को ....बाध्य कर देती थी

लेकिन उसके सपनों में वो बिल्कुल  साफ बोलती थी
और गर्दन तान कर मुस्कुराते हुये चलती थे
और लंगड़ाती भी ना थी

एक दिन उसके सपनों की समिधा बना दी गई थी
और उसे साथ फेरों के भीतर जकड़ दिया गया था
शपथ की देहरी के भीतर अब वो कैद थी
एक जोड़ी बाघ सी चमकती आँखें अब हमेशा उसके साथ थीं ....

पतीली, चमचे ,तवा और आग
बहते पानी की आवाज़ के साथ
आग के बनाते हुये रंगीन धूए का रंग
जो उसे तितलियों के  रंग से मिलता सा लगता था
उसे अक्सर मुट्ठी मे बांध लेती थी वो...

माँ के घर से लाये कपड़े की थेली के भीतर रखे
सात,लाख के चपेटे निकाल उन्हे सहलाती थी
और फिर रख देती थी यथावत ...

समय की धारा में जब एक दिन उसने
चपेटों को निकाला तो ,
कुछ रंग थेली में उभर आए थे
साथ रंगों के साथ चपेटों से सतरंगे चित्ते
उसकी उंगलियों की पोरों में उतर आए थे

लेकिन एक जोड़ी बाघ सी आँखें अब भी पीछे थीं उसके सतत
रंगीन धूए से उसकी आँखें धुंधला जाती हैं अक्सर....

एक टूटा चपेटा जोड़ने में वो अक्सर लगी रहती है
तितलियों के रंग उसे अब नहीं मिलते उन्हें रंगने के लिए ....


नींद और स्वप्न खूँटे पे  टँगे रहते हैं
रंग उसेअब ढूँढे नहीं मिलते ....!



संध्या











लफ्ज


लफ्ज-लफ्ज आवाज़ों के घेरे
बुनते रहते अपने अर्थ ,चुनते रहते मर्म ...

बार-बार कहे जाने वाले लफ्ज
क्या बदल लेते हैं अपना अर्थ...? ...
या अलग -अलग तरह से कहे जाते हैं
तो हो जाता है उनका वजन कम ...
या दोहराये जाते हैं कई -कई बार
अलग -अलग लोगों से
तो बदल लेते हैं रंग अपना...? ...

या आ जाता है मौसम के हिसाब से
उनकी तासीर में फर्क ...
या तय करती हैं परिस्थितियाँ
या समय -समय पर आ जाने वाले
चकित कराते मोड ,चोराहे ,या खाईयाँ
और कठिन पहाड़...
चढ़ नहीं पाते लफ्ज....?


या जब सान्द्र्ता ,लफ्जों के घोल की
होती है अपने चरम पर
हो जाते हैं संपृक्त ....
और आ जाते हैं साम्यावस्था में ....


नहीं... कभी नहीं बदलते ये अपना अर्थ ...सामर्थ्य....
बस केवल हो जाता है कम या थोड़ा ज़्यादा
इनका परिताप ....!


संध्या



    फर्क



वो उगाते हैं फूल
रंग बिरंगे
बिखेरते खुशबूयेँ
बनाते हैं शिल्प मिट्टी  के
माटी दिखाती है राह
फूल बिखेरते खुशबू

एक लिखता कविता
कभी कोई प्रश्न उठाती
उत्तर देती हुई कोई
खुशबू से तर कभी ....

कितने रंग ज़िंदगी के
लाते चमक आँखों में
इंद्रधनुष बिखेरते
 जीवन का .....

और एक वो
शक्ति और अधिकार से सजा
अपने आडंबर में क़ैद
पीड़ा देकर पाता हुआ सुख
चमक उसके आँखों मे भी आती
आत्मसंतोष की ....

गंदे रेंगते हुये कीड़े फैलते जाते
जहाँ से गुजरता वो ....!

संध्या





मेरे संकल्प बीज



हर दिन खुलती आँख ज्यों ही
एक नया ही आसमान होता सामने
आँखें सिर्फ दो
सामने कितने ही दृश्य बिन्दु  

कहीं अंधश्रधधा का आतंक
कहीं टूटे विश्वास की दरकन
कहीं त्वचा के नीचे दबी
कुंठा का मवाद
कहीं अतिरेक मन का
कहीं लिप्सा का घटाटोप
कहीं मुंहबाए खड़े भाव चक्षु
पूछते गंतव्य का सिरा ...

गुज़र जाना होता है हर दृश्य को चीरते हुये

खुली आँखें तनी गर्दन और
लिए द्रढता की पोटली लिए हाथों
बाहर निकलते ही
फिसल जाते लक्ष्य अक्सर

कानों में बजती चीखें
आतंक की स्याही
और अनकहे अनचीन्हे
षड्यंत्रों की बजबजाती आवाज़ें ...

निकल आती हूँ इन सबसे बाहर ,थोड़ी घायल
पर सलामत ...

अपनी पोटली में दबाये
अपने संकल्प बीज ....!


संध्या



     



पुनरावृति


कभी-कभी
रह जाती है एक जुगाली
नन्हें से एक लम्हे की
जो कभी का गुज़र चुका होता है
याद के घेरे पीछा नहीं छोड़ते
ज़िंदगी बस करती रहती है
उसकी पुनरावृति    !


संध्या 




अपना आकाश 



शुक्र है 
दिखता है तालाब और हरियाली 
खिड़की से बाहर 

वरना रीड़ मे उतर आते हैं अक्सर 
अंकों की जमा जोड़ 
मृत करते हैं किसी कविता की 
उगती संभावना को 

दफ्तर में कैद आवाज़ें 
चमगादड़ों की आवाज़ में तब्दील हो जाती हैं 
मंडराती हैं सर के ऊपर 

अपने सही जगह पर होने का अंदेशा 
मुझे अक्सर सालता रहता है 
एक वेतन की स्लिप 
तोड़ देती है सारे मुगालते...
अपनी दुनिया मुझे पुकारती है 
इस तरह दो दुनिया में बटे हम  

तलाशते हैं अपना आकाश ...! 


संध्या 

        






Friday 12 June 2015

नदी


नदी उफान पर थी

बस आश्चर्यचकित थी
जब बिखरी थी इंद्रधनुषी छटा
बिल्कुल न थे बादल
तब इतना उफान आखिर
आया कहाँ से ...

गुपचुप सी
भरती रही नदी
इतना कोलाहल लिए
उमगती रही नदी

किनारे खड़ी हूँ
उतार के इंतज़ार में

पानी की तुर्श धार से
घायल ,झिरझिर हो आए पत्थर
बताएंगे अपनी व्यथा
छितर आए शंख सुनाएंगे
अनकहे गीतों की धुन

शायद किसी सीपी ने
छिपा रखा हो मोती भी
अपने भीतर .....!!


संध्या




रफ्तार


हाथों के पास
काम बहुत था
चीज़ों को थामे रखने को
दरकार थी विशेष दक्षता

करना था हाथों को
यथेष्ट कभी खुरदरा
और कभी चिकना

समय की रफ्तार तेज़ थी
और अंदाज़ा लगाने की
कुछ कम

फिसलन थामने को हाथों को
करना था कुछ खुरदरा
खुरदरी सतह के लिए
चाहिए थी चिकनाई कुछ

साथ-साथ करने थे
रफ्तार के समीकरण हल
अवश्यंभावी था
कुछ न कुछ छूटते रहना
छूटता ही रहता

(रफ्तार ओर संतुलन साधते जीत अक्सर रफ्तार की ही हुई )


संध्या



बाज़ार


एक पूरा भीड़ भरा बाज़ार
सामानों से अटा बाज़ार
सामानों मे आदमी
आदमी मे भरता सामान
ओर यह रहा मुस्कान मेचिंग सेंटर
पता नहीं दुकान मे मुस्कान
या मुसकानों ने ओढ़ ली मुस्कान
धीरे धीरे समान धोता आदमी
सामान होता हुआ
सामान की भाषा बोलने लगता

फिर आदमी के अंदर से बोलता सामान  !


संध्या

Wednesday 29 April 2015

रोजनामचा (1)
...         आज एक बार फिर घेर लिया है सूरज को बादलों ने सुबह बिना धूप के मुस्कुरा रही है ,बारिश की बूँदों ने पूरी सड़क को घेर लिया है रज़ाई से निकालने में कदमों ने इंकार कर दिया है ,ज़मीन पर उतरने में |अक्सर ये होता है नीम सियाह सी सुबह में कि , ताक में रखे हुये  समय के कंचे बज उठते हैं , उन्हे तुम्हारे विभिन्न नामों से पुकारती हूँ ओर हर कंचा अपनी सुगंधी लिए रंग उठता है ... सूरज की रोशनी का यही तो कमाल है....पर कितना अजीब है न कि , जब ये कंचे किसी पराई दीवार पर भी चिपके नज़र आते हैं ....,तब उनका नाम उलट कर पुकारने को मन हो आता है सारे रंगों पर स्याही फेर देने को...मन निर्मोही ! गले में कुछ अटक सा जाता है कुछ टोटके तलाशता है मन ...बाहर जाकर आसमान में इंद्रधनुष देखती हूँ अगर दिख गया तो लौट  आएँगे सारे कंचों के गुम हुये रंग  ,और नहीं तो...तो... ... बस एक कप अदरक की चाय का टोटका ठीक रहेगा...वाह ! कैसी कैसी चापलूसी मन के  लिए ...खूब ...और फिर तुम्हारी याद अकेले कहाँ आती है साथ मे आते हैं चन्द्रकान्त देवताले और साहिर की ध्वनी तरंगें भी ..........फिर सारे कंचों को समेट ....कर  कपड़े की थैली में रख देना और उन्हें उन्ही के नामों से सिलसिलेवार पुकारना और ये मान कर चलना कि , जो पराई दीवार पर है कंचे वो तो हैं ही नहीं दरअसल ! कंचों की आवाज़ के स्पंदन को दिन भर गुंजाना है इसी ऊर्जा से दिन भुनाना  है मुझे   ....गले में अटक गए कुछ को रखना है शब्दों की गठरी बना कर जीवंत  डायरी के पन्नो के लिए ....|कहीं कंचों का रंग न बदल जाये कहीं...शुक्र है आँसुओं का रंग नही होता वरना टंक जाता कंचों पर ......|
           तुम्हारी आवाज़ की सतलहरियाँ बज उठती है कानों में...और फिर एक पूरे दिन को इन मुए कंचों की दरकार नहीं रह जाती ...|नगर निगम के चुनावी शोर में बाकी सभी आवाज़ें दब जाती है..ऑफिस के पार्किंग प्रांगण में एक कुतिया धूप में पसरी है उसकी सारे  आठ पिल्ले उससे चिपके हैं ,मुझे गाड़ी से उतरते देख बन्नो ...पुंछ  हिलाती आती है ..उसे पता है ब्रेड मिलने वाला है ,एक दूध की थैली भी साथ लाई हूँ...और एक कटोरी भी उसे खाते देख उसकी तृप्ति का तो पता नहीं..पर मैं तृप्त भाव से निहारती हूँ उसे ओर उसके पिल्लों को |
            सड़कों पर पसरी गाडियाँ दिन -ब -दिन बढ़ती जाती हैं विकास काढांचा खुली सड़कों और गढढ़ों मे तब्दील होता हुआ दिखता है | एक पेड़ रेलवे क्रोससिंग  पर बाहें पसारे रुकने का इशारा सा करता है ,एक बड़ा सा होर्डिंग लगा है जिस पर एक बड़ा सा बांग्ला है जिसमे वैभव का नक्शा लुभा रहा है ...........उसके ठीक नीचे एक झुग्गी जैसे उसकी खिल्ली उड़ा सी रही है...वैभव बढ़ते भंडार का खोखलापन और खाली होता जाता मन ॥...!
भोपाल के गली, मोहल्ले, पटिये, झील जहाँ एक लंबा समय गुज़ारा यहाँ नहीं दिखाई देते ,गगञ्चुंभी इमारतों के बीच आसमान भी देखने को ढूँढना पड़ता है ....!
        मैं अपना आसमान अपने साथ लेकर चलती हूँ और दिन के इस आखरी पड़ाव पर  अपनी डायरी के पन्ने में उतार  देती हूँ अगले दिन की जद्दोजहद के साथ के लिए नींद वाली रात का इंतज़ार करती हूँ ......!


रोजनामचा  (4)
                  यूँ तो हर शहर का अपना मिजाज होता है ,पर जहाँ कोई आपका अपना इंतज़ार कर रहा होता है तो उस शहर की बात ही अलग होती है ना... ये नई उम्र के युवा(बिटिया) जिनके लिए समय उतना ही कीमती है जितनी उन्हे अपनी ज़िंदगी प्यारी होती है | सुबह से शाम तक अपनी ऊर्जा को चरम तक निचोड्ते जैसे नहीं जानते थकान का नाम भी और सप्ताहांत पर अपनी आय का एक बड़ा हिस्सा खर्च कर भूल जाना चाहते हैं अपने काम के तनाव को साथ ही सारे रिश्ते पूरी शिद्दत से निभाते....मन सचमुच गर्व से भर आया है |....शहर की भीढ़ रफ्तार ओर ऊर्जा के साथ कदमताल करते अपने शहर की याद घना जाती है |
                 अपने शहर मे प्रविष्ट करते ही कड़ी धूप स्वागत करती है ,गर्मी अपने शबाब पर है यात्रा की थकान घर के ख़याल मात्र से काफ़ूर  हो जाती है ,काम की थकान रोज़मर्रा की एकरसता से भागा मन फिर -फिर अपने ठाँव पर ही आराम पाना चाहता है ...सच कहते है गुलज़ार भी की ,ये आदतें भी कितनी अजीब होती हैं...ओर ये बंजारा मन ...? घर पर बेटू जी एक ग्लास ठंडा पानी देता है ,पतिदेव झट मुझे घर छोड़ कर ऑफिस रवाना होते हैं |दोस्त हाल हवाल पूछते हैं कहाँ हो ...? गुमशुदा ....और कोई है जो आपको हर हाल में याद रखता है रखना चाहता है ,बस चाहता है आप हर हाल में खुश रहें एक ऐसा दोस्त लगावट वाला रिश्ता जिसे शायद आप कोई नाम देना नहीं चाहते हैं |कोई नाम सुबह की गुनगुनी धूप सा ठंडी शाम सा इत्मीनान सी रात सा जिसे आप अपने सक्षिप्त प्रवास में भूले रहना चाहते हैं |और सिर्फ ओर सिर्फ रहना चाहते हैं अपने साथ...मगर नज़र का फेर ...कलम में ऐसा उतारने का खवाब पाले रहते हैं कि , हर नज़ारा अपने परिपूर्ण फ्रेम में ही दिखाई देता है खुद का अस्तित्व भी जैसे इसी खांचे में फिट हुआ नज़र आता है |
                 मोबाइल पर व्हाट्टसप्प पर बिटिया से जुड़े रहना सुकून देता है ,पर वहाँ की तेज़ रफ्तार ज़िंदगी देख लेने के बाद और स्वयं के प्रति लापरवाह इस युवा नस्ल की जीवनशैली देख लेने के बाद मन आशंकाओं से भी घिर जाता है ... फिर लगता है ये ही इनका जीवन जीने का तरीका है हमारे धीमी रफ्तार जीवन से काफी अलग ये जानते हैं अपनी रक्षा करना ,जीना और खुश रहना  |यही सोचकर धीरे- धीरे  सामान्य हो जाती हूँ |
               कुछ है जो बदल रहा है शहर को सड़कों को......चोड़ी होती सड़के कम होते पेड़ ,गाड़ियों की लंबी लंबी कतारे ,बढ़ता अधैर्य .... शायद ही कोई दिन होता हो जब सड़क पर होता हुआ कोई एक्सिडेंट न देखा हो ,ओर शायद इसलिए जब ऑफिस से लौटती हूँ हूँ तो ये काली सी सड़क लाल होती दिखाई देती है मुझे लीलती हुई ....
इंच दर इंच ट्रेफ़्फ़िक जाम में  फसी  रेंगती हुई ....घर जाने का सुखद एहसास सब कुछ सहने को मजबूर कर देता है |जिस रफ्तार से सोश्ल मीडिया पर दोस्तों की संख्या बढ़ रही है उसी रफ्तार से अवसाद और अकेलापन भी जैसे बढ़ रहा है ॥भावुक मन अपने जंजाल बढ़ाता नज़र आता है हर ओर .... जिसे कभी तो किसी बीमारी का नाम देने का मन करता है ... या ये कोई किसी नई नस्ल का "कायांतरण " है मात्र ?
घर पर टेबल पर रखी हुई डी एहच  लारेंस की" संस  एंड लवर्स "के किसी पृष्ठ पर रखा बुक मार्क का चेहरा मुस्कुरा रहा है कहता हुआ...."बिटिया से मिलने गई तो संस एंड लवर्स को भूल ही गई ? क्यों ? ...." लो इनकी शिकायतें भी सुनो अब....मैं होले से मुस्कुरा देती हूँ ....|पानी की आधी भारी बोटल जैसी छोड़ गई थी जल्दी में वैसी ही पड़ी है दो टिपके धर देती हूँ और एक अर्ध चंद्र बना देती हूँ अब मुस्कुरा रही है बोटल " शुक्र है हमारी भी सुध ली बन्नो ने " | जैसे हर समान बात सा कर रहा है मुझसे ...कैसा चमत्कार बेणुगोपाल मुस्कुरा रहे हैं पन्ने फड़फड़ा कर अपनी उपसतिथी दर्ज करा रहे हैं ... वेणुगोपाल की कविताएँ और डी एच  लारेंस का ...मोकटेल ..(कभी पी देखिएगा )  |
                  वक्त के साथ खुद को बदलने की कवायद करता हुआ मन ,थकान में डूबा सोच की गठरी बंधे रहना कब छोड़ेगा ? नींद का इंतज़ार .....!


                 
                   

Sunday 26 April 2015


रोजनामचा (5)
       

    मौसम किस तरह दबे पाँव अपना रंग बदल लेता है ,बिना ज़रा सी आहट किए अभी सर्द था फिर नीम गर्म और अब लगता है की जैसे कभी ठंडा भी था क्या ....तुर्श धूप का झोका मुझे उठाता है  खिड़की से झाँकता हुआ और एक किरण जैसे सीधी आँख मे पड़ती है मुसकुराती हुई....काम समय पर ख़त्म करने की आवाज़ें थोड़ा और सोने के लालच को दूर  भगा देती हैं ....|
                किसी का सुख किसी के लिए दुख लिए होता है जैसे बंधी मुठ्ठियों मे बंधे  सुख की ओर टकटकी लगाए चार नयन ताक मे ही बैठे होते हैं कि, जाने किस ओर ये मुट्ठी खुलेगी ,पता नहीं कब ये इतने सुशिक्षित आत्मविश्वासी मन इतने नन्हें नन्हें सुखो की बाट जोहने लगते हैं... और इतने स्वार्थी हो उठते हैं ...और ये मुठ्ठिया ? इनको कौन हक दे देता है कहीं भी हाथ भर बाट देने का ? जैसे एक सोच समझ कर किए गए प्रेम की जकड़न में फसा लिया गया हो और मन बस देखता ही रह जाता है.....इतना कमज़ोर होता है क्या मन ? कभी लगता है अगर जिससे हम प्रेम करते हैं अपना मानते हैं उस ओर सोचते हैं तो कहीं और भी कुछ अन्याय होता महसूस करते हैं या ये सब बस मन के खेल हैं...जब तक जहाँ तक कोई खेल ले ...?...इन सब बतकही से दूर अपने काम मे जूझ जाती हूँ  |
                 तेज़ धूप का असर है जो ये चमक आँखों मे पड़   रही है... रोज़ किसी नए ....बनती इमारत का श्रीगणेश होता दिखाई देता है...कहाँ से इतना पानी आएगा ...इतनी सीमेंट ....और दिन पर दिन बढ़ते हुये लोग
आखिर एक दिन ये धरती कह ही देगी अब बस ..... नहीं झेला जाता मुझसे इतना बोझ ....|गाड़ी पार्क कर उतरती ही हूँ कि एक हल्का सा चक्कर महसूस करती हूँ.....अरे ये क्या...सच में कल से थोड़ा कुछ खा कर ही निकलना होगा वरना   ....कुर्सी पर बैठते ही मोबाइल घनघना उठता है कभी कोई दोस्त कभी पतिदेव...भूकंप महसूस हुआ क्या ...?...ओह ...! तो ये भूकंप का हल्का सा एहसास था चक्कर नही ...और मैं ऐसे ही कुछ भी सोचने लग पड़ी ,फिर तो नेपाल ,काठमाण्डू ,बिहार, देहली और सारे भारत से भूकंप की खबरें आने लगी ....सोचती हूँ ये जो मुझे अजीब से ख़याल आ रहे थे ये कोई पूर्वाभास था ...जो ज़मीन कह रही थी ?
                  काम को लेकर अजीब सा माहौल   है ऑफिस में जैसे सब अपने अपने स्वार्थ के आगे झुके हुये हैं कोई भी देखने को तैयार ही नही है किसी की मजबूरी और पीठ पीछे अजीब अजीब साजिशें अपनी कानाफूसियाँ कर रही हैं अजनबी आवाज़ें दस्तक दे रही हैं  ....अगर कोई लक्ष है तो वो है पैसा .... जहाँ से भी मिले जैसे भी मिले ....इसी सी सारे समीकरण तय होने हैं कौनसा कर्मचारी किसके पास जाएगा और कौनसा...वार्ड  कितनी आमदनी वाला है ...जहाँ जाने से फायदा मिल सकेगा |अगर आप न चाह कर भी इन सारी बिछी बिसातों में से किसी न किसी के खेल मे चाहे अनचाहे गिरफ्तार हो ही जाते हैं ,एक अनचाही लड़ाई लड़ते हुये  |
                  टेबल पर लिखते हुये  ,हल्का से  बाज़ू की ओर नज़र पड़ती है तो ...लाफिंग  बुधधा जैसे पीठ पर गठरी लादे हुये तैयार खड़े होते हैं...मुस्कुरा कर पूछती हूँ उनसे "आज क्या है मेरे लिए इसमे "? अरे वाह ! पहले मुझे मेरा इनाम दो फिर खोलूंगा गठरी " " लो आपको भी भूत चड़ गया क्या "?"सब के सब बेताल हुये जा रहे हैं
इन्हे पता ही नहीं मुझे मेरा आज का हिस्सा मिल चुका है  "|और जैसे मुझे आज सुबह के सवाल का जवाब भी मिल जाता है अपना अपना हिस्सा है ,अपना अपना किस्सा है और इस भूकंप ने भी बताया कल क्या होगा किसको पता .........."लव इन द टाइम ऑफ कोलेरा "मारखेज अपने पन्नों मे मुस्कुरा रहे है ....जीवंतता की मोहर लगा रहे हैं ....सभी अपनी अपनी कमजोरियों और मज्बूतियों के साथ डटे हैं !
              रात जैसे लंबी हो गई है सुबह जल्दी आ जाती है आजकल ...उसी किरण से मिलना है सुबह उठ कर ।मगर एक अलग अंदाज़ से ...बिना सवाल...पूछे जवाबों को जीते हुये ...धन्यवाद यारम  !आज मगर नींद भी इंतज़ार मे है .....|


                                                                                   ***

             
             

Saturday 21 March 2015

(3)स्मृति की गिरहें :---...
मुझे याद है आज भी ...सिनेमा देखने का कार्यक्रम एक दिन पहले बनाया जाता था , सूत्रधार होती थीं प्रेमा दी और यासमीन अप्पी ।मस्जिद के थीं बाज़ू वाला हमारा घर होता था ,और दो घर छोड़ कर यास्मीन अप्पी का घर था ...जब ढाई बजे का शो (मेटिनी) देखने जाना हो तो ठीक डेढ़ बजे से गफफ़ूर चाचा का तांगा घर के सामने आ खड़ा होता था। हमेशा की तरह तांगे की एन पीछे दो मोटी कीलें ठुकी होती थीं जिस पर सफ़ेद रंग का पर्दा टाँग दिया जाता था ,जिसके भीतर रशीदा अम्मी ,अप्पी और प्रेमा दी बैठा करती थीं । और सामने की ओर मैं सुधाकर भैया इम्तियाज़ जिन्हे हम गुड्डू कहा करते थे । और बलविंदर सुरिंदर बैठा करते थे गफफ़ूर चाचा के चाबुक से छेड़छाड करना हमारा खास शगल हुआ करता था । राशीदा अम्मी खाने पीने की चीज़ों से अपना 'डोलचा ' तैयार किया करती थीं । और हमारी अम्मा इडली चटनी स्टील के डब्बे में रख दिया करती थीं वो अक्सर हमारे साथ नहीं ....जाया करती थीं ....और तब हमारा सफर शुरू होता था ... कूच करते थे सिनेमा की और ये गिननोरी से होता हुआ बुधवारा फिर सुल्तानिया अस्पताल भारत टाकीज़ होता हुआ अल्पना टाकीज़ तक पहुँचता था ...और हम सब अंदर को दौड़ लगाते थे । टाकीज़ के अंदर की खूबसूरती और बड़े से काँच पर बनी ....पैमाने और सुराही के साथ सुंदरी की कलाकृतियाँ बहुत लुभाती थीं हमें .....और साहब ... सिनेमा देखने के बाद यास्मीन अप्पी का वहीदा रहमान के कपड़ों को खास तौर से ध्यान से देखना और घर आने के बाद उसका तफसील से बयान ...चप्पलें साड़ियों और कुर्तियों पर की गई कड़ाई ज्यों की त्यों उकेर देती थीं। कभी मोतियों का काम कभी पोत की हसीन कसीदेकारी ...बाद के कुछ सप्ताह इन्ही रंगीनीयों में गुज़रते थे ....!
आज याद करती हूँ ऐसे कोई दो परिवार दिखें जो दिलों मे उज्र लाये बगैर मिलते जुलते हों ...तो आँखों में एक तलाश की एक मोटी सी मोतियाबिंद गिरह बंध जाती हैं ...!!
(वो सिनेमा 'आदमी' दिलीप साहब और वहीदा रहमान थीं उसमे वान गोग का ये चित्र देख खास याद आया )
वैसे भी पूरे होना
एक असंभव सी कोशिश ही तो है
फिर भी हम अक्सर पूरी ज़िंदगी इसी मे लगा देते हैं
और फिर आगे जाकर निहारते हैं
अपने अलग अलग हुये टुकड़ों का 
अलग अलग जगह छूट से गए अनेक टुकड़े
हर टुकड़ा अपनी दास्ताँ बयाँ करता हुआ
विस्थापित होकर जीना
और इससे बड़ी सज़ा क्या हो सकती है भला
संध्या
जैसे रहते हो कई बेआवाज लोग यहाँ
निर्भर रहते हैं ,दूसरोकी अपनी आवाज़ पर
मोहर के लिए ...
जब तक सियाही के रंग से नही जोड़ पाते
अपना तारतम्य...
कागज़ की खुशबू ना कर पाये जज़्ब...
अपने नथुनो मे
अडोनिस ने कहा
भाषा आवाज़ की सुबह है
ठीक वैसे साकक्षर ना होना
जीवन की रात ....!!
संध्या
स्त्री सा बन
भर स्त्री सा....रही सोचती
दूसरी बन...
मानव सा बन 
भर मानव सा...रही विचरती
कुछ स्वतंत्र बन ...
इसी से नाराज़ है
कुनबा सारा .....!!
संध्या
गुलाब के फूलों का ये
तिलिस्मी गुच्छा,
एक दिन जब मुरझाने पर आयेगा
अपने सुर्ख से रंग को छोड़ कर
ज़र्द सियाही मे बदल जाएगा 
संभाले रखने की अपनी कोशिश मे
किसी किताब के सफहे मे दबकर
अर्क़ से दबा जाएगा ,कोई गुमशुदा हरुफ़
और फिर अपने माज़ी से मिलने के लिए
मेरे ख़यालों का दरवाज़ा खटखटाएगा
गुजिशता एक दिन
(वो भी पूरा नहीं)
और उसके कुछ ज़िंदा लम्हों को
अपने धुंधले अक्स मे छुपकर
धनक से कई मानी
मेरे झोली मे डाल जाएगा ......!!
संध्या
शहरनामा : रोजनामचा (2)
सुबह के लबादे में कैद मौसम अपनी ओस की एक महीन सी परत हर ओर बना देता हैं ...गिरते पानी ने सड़क को ढाप लिया है समय की पांत जैसे कुछ कम चौड़ी हुई जान पड़ती है काम करते हुये घड़ी कुछ तेज़ भागती हुई लग रही है.....उफ्फ ! ये सर्द दिन ...
सड़कों पर चुनावी सरगरमियाँ यथावत हैं स्पीकर पर गूँज रही हैं आवाज़ें " हम लाये हैं तूफान से कश्ती निकाल के " दिल दिया है जाँ भी देंगे ए वतन तेरे लिए "ज़ोर शोर से पटाखों की आवाज़ें गूँजती हैं और फिर आवाज़ें "हम एक स्वच्छ और सुंदर भोपाल का वादा पूरा कर दिखाएंगे " और उनकी गाडियाँ गंदगी ज्यों की त्यों छोड़ आगे बढ़ जाती हैं ...दो -तीन पार्टियों की आमने सामने मुठभेड़ हो जाती है..... और भागती हुई सड़क यकबयक थम जाती है ट्रेफ़्फ़िक जाम .... एकदम पीक आवेर और हॉर्न की बढ़ती जा रहीं बेचैन आवाज़ें ....सेंसर मशीन पर अंगूठा लगा कर उपस्थिति दर्ज करने का तनाव मुझे भी घेर लेता है ... खुदाई से छोटी हो गई सड़क आने वाले लोग जाने वाले लोग उसी संकरी जगह से गाड़ी निकालने की अपनी अपनी कवायद में लीन और ज़रा आगे रेल्वे फाटक पर लाल बत्ती ...उफ्फ !!
कुछ निर्णयों को मुलतवी रखे जाने के बीच एक -एक कर हमारे बीच से किसी बड़े का कम होते चले जाना और उन्ही सब के बीच ... भीतरघात,उपालंभ और कुंठाओं की नमी से उपजे पौधे चारों ओर फैलते नज़र आने लगे हैं ..... कब किस कुंठा ने किस पौधे को आकार दिया ये उसके ज़हरीले पत्तों ने बताया अंदरूनी त्वचा पर धीरे -धीरे पड़ते उसके घाव नज़र ही ना आते... बहुत अपने समझे जाने वाले दोस्त.... रिश्ते समझे जाते थे जो उन्हे भी ना बताया जा सकता था इनके बारे में
"मिलने मिलाने का सलीका रखिए " निदा फ़ाज़ली साहब याद आते हैं बारीक सी भाव परत को सलीके से दबाये रखकर साथ -साथ चलते रहने का का छदम पाले मन पर एक उदासी की परत जम आती है ...और दिन का चेहरा और भी कोहरे में डूबा लगता है और नेपथ्य मे सलिल चौधरी अपना राग बजाने लगते हैं ...तुम्हारी ....मान्द आवाज़ साथ देने लगती है ....|
अकेलापन और भी अकेला होते जाने को बाध्य है ...शहर और भी ज़्यादा शहर होता हुआ बाहर से फैलता हुआ.... अंदर से सुकड़ता हुआ .......
विन्ड्स्क्रीन पर कोहरे की परत जम जाती है शुक्र है आँखें साफ है ...पहियों के साथ सड़क पर जमी दोस्ती के बीच होड़ लगाती गीली मिट्टी की गाढ़ी परत साथ चली आती है .... तरल भाव कहीं छिटक जाते हैं बीच -बीच में ये मोटे से ढेले मिट्टी के... तो विजेंद्र गाड़ी साफ कराते हुये साफ कर देता है मन पर जमी छदम को देखती परखती मिट्टी की परतें.... जिन्हे काट कर अलग करने को कोई चाकू नहीं .....
इसी मिट्टी की गीली परत पर शब्द कुछ निखर कर उभर कर दृष्टव्य होते हैं ...
डायरी का सफ़ेद पन्ना मुझे मुह सा चिढ़ा रहा है .......
संध्या
ज़रा देर को
कोई एक बादल का टुकड़ा
कर सकता है अदृश्य तुम्हें
अपनी गति के प्रमेय से बंधी
निहारती हूँ अटल तुम्हें ... 
हे ध्रुव ....
बनी रहना चाहती हूँ
और भी अधिक धरती
हमेशा के लिए ....
संध्या
शहरनामा : रोजनामचा (3)
बसंत के आगमन की खुशबुओं को लपेटे चल रही हवाएँ कांधे को सहला रही हैं... सुबह थोड़ी ख़ुनकी लिए जगाती है और दिन जैसे चौंधियाहट के साथ गालों पर नीम गरम थपकियाँ देता है प्रांगण को पार कर मुख्य द्वार तक पहुँचते कदम सूखे पत्तों की खडखड़ाहट भरे होते हैं ...आदतन सभी सर्द शरद से उबर नही पाये हैं और अपने गरम कपड़ों मे ही ढके हुये नज़र आते हैं |
चुनाव की आवाज़ें अपने कुछ नर्म और कुछ गरम परिणाम लिए दस्तक दे रही हैं ... जीपों और गाड़ी में भरे हुये गुलाल बिखराए रंगे लोग जीत का जश्न मना रहे है.... कुछ हार का सोग भी मना रहे हैं |स्मृध्धि और विकास की शर्तों पर जीते गए चुनाव अपने अपने हिसाब किताब लगाने मे जुटे हैं ... चुनाव परिणाम के साथ ही एक अजीब सा सन्नाटा सा पसरा नज़र आता है ...|
और मुझे याद आ रही है वो बरगद की छाँव जिसके नीचे बड़े हुये... जिसने सिखाया अपने पैरों पर खड़ा होना... और अपने साथ खड़ी लता को सहारा दिया.... अब छोड़ गया है स्वयं ही हम सबको अकेला ...कैसे ज़हरीली हवाओं से स्वयं को अलग रखा जा सकता है..... रहा जा सकता है बेअसर ...ये उसीने सिखाया..... और लीन हो गया प्ंच्तत्व में ,,,,,,नितांत अकेला छोड़ कर हमें ....और उसी के तले पले- बढ़े पौधे उसी का स्वरूप पर कितना अलग.... और उनके कद के पासंग भी नहीं ...दिन पर दिन मुरझाती लता ने ले लिया है सहारा अब ...उन ही पौधों का ...पर कितने दिन ...?
बसंत अपने रंगों से हर बरस लुभाता है याद आता है ....पर खुद की आँखों की चमक से भीगा अवसाद बसंत को भी अवसादमय बना देता है ...और उल्लास का कोई बिखरा कण..... इसे उल्लासमय बना देता है ....कहीं खोया सा इंद्रधनुष झाँक जाता है... जैसे दो हिस्सों में बट गया हो बसंत... अलग -अलग नज़रों में कैद हुआ .... और जहाँ न हार हो ना जीत ....? बस साथ -साथ चलता रहता है अपनी हर लय मे आबध्ध .....विरक्त ....जो जाने कितने टुकड़ों में बट गया है....साथ लपेटे ....चलते चलना है... .. अनिरवार ........अज्ञेय जी की कविताओं के इंद्रधनुष झाँक जाते हैं हाथों से .....
एक बेमायना .....वहम और अपनी ही शख़्सियत को तनकीद करता हुआ बसंत अपनी गुपचुप सरगोशीयों में .....बाहर ही कहीं ठिठक जाता है ...उसकी खामोश दस्तक को कुछ देर तवज्जो न दिये जाने पर...असंतुष्ट सा वो चल पड़ता है किसी और दरवाज़े पर दस्तक देने ...... और वो एक क़ातिल लम्हा उम्र भर को गिरां हो जाता है ....मुझपर ...और तुम्हारा इसरार ......गीत गाने को .... तुम अपना रंज ओ गम अपनी परेशानी  मुझे दे दो ......
मैं और शहर ...रात ....के इक खास पहर ...के गुफ्तगू के इंतज़ार में ....
नींद आगोश होती हुई रात ...
संध्या

Tuesday 10 March 2015

नहीं चाहिए उनको कोई बाधा
अपने मुगालतों में...
बहुत सारा खाली वक्त है उनके पास
और ढेर सारा खाना 
देखने को हैं सपने
और कर लिया है वक्त को खाली
दिवास्वप्नों के लिए ...
'इरशाद' 'वाह ' और' मुकर्रर ' की दिल खुश
आवाज़ों मे गुम है उनका असल व्यक्तित्व ...
और अहम के परचम थामे
स्वयंसिध्ध होने की होड़ में गुम हैं ...
अपने सफल अभिनय से
बिल्कुल नहीं कहते.... जो चाहते हैं
असल में
कहने और सोचने के फर्क को
दिखाई भी नही देने देते
अपने सशक्त अभिनय से वो ...
अपने दोहरी शख़्सियत पर
अक्सर लगा देते है ज्ञान की छौंक
तथाकथित बुध्धिजीविता से ...
बस लोभ का संवरण
बस के बाहर है इनके ....
(इन्हें पता ही नही .....ये कहाँ जाने के लिए निकले थे दरअसल ..

संध्या 
कोई कुछ भी कहे ,ये बात दीगर है ,
मेरे यक़ी से बड़ा तो कुछ भी नहीं !
संध्या
रात और दिन
रोज़ मिलते हैं ,बिछड्ते हैं
समय के विनिर्दिष्ट बिन्दु पर
और ठीक वहीं मुस्कुरा उठती है साँझ
अपने अस्तित्व को समेटे 
इंद्रधनुषी छटा बिखेरे, क्षितिज पर
लगाती है अपनी जीवंतता
की मोहर ....
अनवरत क्रम लिए
प्रतीक्षारत ...!!
संध्या
शब्द्श: पढ़ते रहे किताब ....
हाँ खुली किताब ही तो थी
कोई वादा न था किसी नए किस्से का
खुलेगा कोई नया रहस्य ऐसा भी न था 
हा, हर सवाल पर एक जवाब का वादा था
कुछ सवाल पूछे न जा सकते थे
कुछ जवाब दिये ना जा सकते थे
और जहाँ उलझन थी ...
सवाल को ही कटघरे में खड़ा कर दिया जाना था
ये भी कोई सवाल है भला ...? नेक्स्ट.......
फिर भी एक औज़ार था जिये जाने का निरंतर
कहीं चौंका देने वाली जीवंतता लिए ......
और कहीं खुशियों का पुलिंदा लिए
और कहीं उत्सुकता के भँवर लिए
डूबने को आतुर ....
और वही बना विधायक
उसी ने किए निर्णय
कभी ढूँढा जाता रहा सलीका
और कभी तलब......!!
संध्या
कभी बासी नही होते वो हाथ
जिनकी भर अंजुरी से पहुँचे हों रंग तुम तक
और उन्ही हाथों से गुज़र पाये हैं तुमने
रंग ,और उकेरे हैं शब्दचित्र
उन हाथों का एहसान भले ही न मानो तुम 
उन हाथों की सन्निहित खुशबू
तुम्हारे बनाए शब्दचित्रों में
हमेशा लहकती रहेगी .....
प्रेम कभी बासी नही होता प्रिय ....!!
संध्या
ढुलक गई तेरी कशिश की सियाही , इन सफहों पर ,
इस तरह अपनी ज़ात को कुछ और तराशा हमने !! 
...
रात भर आँखों से जो मोती टपके ,
"तसबीह" बना ली ज़िंदगी हमने !!
संध्या
सृष्टि के अंतिम छोर पर
डूबता है सूरज
आँखों की कोर में
भरता अंधियारा ....
नहीं डूब पाता हृदय के भीतर
जमा हुआ तुम्हारी कौंध का सूरज
अटका रहता सदा
जीवंतता की मोहर लगाता
जैसे उजागर हो जाता था सन्नाटा
चन्द्रकान्त देवताले जी की कविता
"कुछ तो है तुम में,जो सितार सा बजा लेती हो
सन्नाटे को तुम"
तुम्हारी आवाज़ की
मृदुता के साथ कौंधता ..........
बजता हुआ .....
साहिर, खामोश गुंजाते अपने गीत
तुम्हारे मेरे बीच....तुम्हारे मौन में....
तुम्हारे विश्वास .अति आत्मविश्वासी..
प्रश्नवाद के उत्तर में
चिन्हित...उजियारे के बीच
आ खड़े होते तुम ...
ख़ैयाम के गीत संगीत में
दिलराज कौर की दिलकश आवाज़
को गाती आवाज़ को बार बार
सुनने के इसरार के बीच
कौंधता सूरज .....
हृदय की नदी के पार .....
मुझे खुशी है
"साहिर" अब तक ठहरे हैं वहीं
"ख़ैयाम " भी जैसे साथ साथ चलते हैं
किसी मौन के टुकड़े में
किसी हाँ हूँ के बीच
और स्वीकृति की
म्रदुल मुसकान के बीच .....
सूरज जो दिखता रहा
कहीं डूबता हुआ
दरअसल जगह बदल
आ ठहरता है
दिल के बीचों बीच .....!!

संध्या 



कितनी सारी आवाज़ों के बीच
अपनीचिर-परिचित आवाज़ को ढूँढना
दूभर सा क्यों होता जा रहा है इन दिनों ....
कितना संतोष दे जाता था 
एक ही शहर में रहकर भी
कितने कितने दिन न मिलकर
जुड़े रहना बातों में... आवाज़ के साथ
और भर देता था कितनी बेचेनियाँ , बदहवासियाँ
कुछ ही समय को छोड़कर जाना शहर से बाहर मेरा
तुम्हारे अंदर ....
एक -एक पल की खबर रखना तुम्हारा
कहाँ हो ? सब ठीक है न ? अपना ख़याल रखना ....
तरह -तरह के अंदेशे तुम्हारे
और वो एहसास दूरियों का
तुम्हारी वो शीरी खनकदार आवाज़
और "खाँ यार " कह कर बतियाते असंख्य किस्से
और तुम्हारी खिलखिलाहट में बसी वो पुरसुकून लगावट
किस तरह चढ़ गए है भेंट कुछ दुरभिसंधियों के
या महत्वाकांक्षा के पहाड़ चढ़ गिर गए हैं विस्मृति के गर्त में
या चढ़ गई है समय की गर्द उस अदृश्य डोर पर
जिसने जोड़े रखा सदा ही .....
वो पुरशीरी आवाज़ ढूँढती है मेरे मोबाइल को
और मैं ढूँढती हूँ आवाज़ को उसके भीतर शिद्दत से
नदारद बेचेनियों का सुकून .......!!
संध्या