Saturday 21 March 2015

(3)स्मृति की गिरहें :---...
मुझे याद है आज भी ...सिनेमा देखने का कार्यक्रम एक दिन पहले बनाया जाता था , सूत्रधार होती थीं प्रेमा दी और यासमीन अप्पी ।मस्जिद के थीं बाज़ू वाला हमारा घर होता था ,और दो घर छोड़ कर यास्मीन अप्पी का घर था ...जब ढाई बजे का शो (मेटिनी) देखने जाना हो तो ठीक डेढ़ बजे से गफफ़ूर चाचा का तांगा घर के सामने आ खड़ा होता था। हमेशा की तरह तांगे की एन पीछे दो मोटी कीलें ठुकी होती थीं जिस पर सफ़ेद रंग का पर्दा टाँग दिया जाता था ,जिसके भीतर रशीदा अम्मी ,अप्पी और प्रेमा दी बैठा करती थीं । और सामने की ओर मैं सुधाकर भैया इम्तियाज़ जिन्हे हम गुड्डू कहा करते थे । और बलविंदर सुरिंदर बैठा करते थे गफफ़ूर चाचा के चाबुक से छेड़छाड करना हमारा खास शगल हुआ करता था । राशीदा अम्मी खाने पीने की चीज़ों से अपना 'डोलचा ' तैयार किया करती थीं । और हमारी अम्मा इडली चटनी स्टील के डब्बे में रख दिया करती थीं वो अक्सर हमारे साथ नहीं ....जाया करती थीं ....और तब हमारा सफर शुरू होता था ... कूच करते थे सिनेमा की और ये गिननोरी से होता हुआ बुधवारा फिर सुल्तानिया अस्पताल भारत टाकीज़ होता हुआ अल्पना टाकीज़ तक पहुँचता था ...और हम सब अंदर को दौड़ लगाते थे । टाकीज़ के अंदर की खूबसूरती और बड़े से काँच पर बनी ....पैमाने और सुराही के साथ सुंदरी की कलाकृतियाँ बहुत लुभाती थीं हमें .....और साहब ... सिनेमा देखने के बाद यास्मीन अप्पी का वहीदा रहमान के कपड़ों को खास तौर से ध्यान से देखना और घर आने के बाद उसका तफसील से बयान ...चप्पलें साड़ियों और कुर्तियों पर की गई कड़ाई ज्यों की त्यों उकेर देती थीं। कभी मोतियों का काम कभी पोत की हसीन कसीदेकारी ...बाद के कुछ सप्ताह इन्ही रंगीनीयों में गुज़रते थे ....!
आज याद करती हूँ ऐसे कोई दो परिवार दिखें जो दिलों मे उज्र लाये बगैर मिलते जुलते हों ...तो आँखों में एक तलाश की एक मोटी सी मोतियाबिंद गिरह बंध जाती हैं ...!!
(वो सिनेमा 'आदमी' दिलीप साहब और वहीदा रहमान थीं उसमे वान गोग का ये चित्र देख खास याद आया )
वैसे भी पूरे होना
एक असंभव सी कोशिश ही तो है
फिर भी हम अक्सर पूरी ज़िंदगी इसी मे लगा देते हैं
और फिर आगे जाकर निहारते हैं
अपने अलग अलग हुये टुकड़ों का 
अलग अलग जगह छूट से गए अनेक टुकड़े
हर टुकड़ा अपनी दास्ताँ बयाँ करता हुआ
विस्थापित होकर जीना
और इससे बड़ी सज़ा क्या हो सकती है भला
संध्या
जैसे रहते हो कई बेआवाज लोग यहाँ
निर्भर रहते हैं ,दूसरोकी अपनी आवाज़ पर
मोहर के लिए ...
जब तक सियाही के रंग से नही जोड़ पाते
अपना तारतम्य...
कागज़ की खुशबू ना कर पाये जज़्ब...
अपने नथुनो मे
अडोनिस ने कहा
भाषा आवाज़ की सुबह है
ठीक वैसे साकक्षर ना होना
जीवन की रात ....!!
संध्या
स्त्री सा बन
भर स्त्री सा....रही सोचती
दूसरी बन...
मानव सा बन 
भर मानव सा...रही विचरती
कुछ स्वतंत्र बन ...
इसी से नाराज़ है
कुनबा सारा .....!!
संध्या
गुलाब के फूलों का ये
तिलिस्मी गुच्छा,
एक दिन जब मुरझाने पर आयेगा
अपने सुर्ख से रंग को छोड़ कर
ज़र्द सियाही मे बदल जाएगा 
संभाले रखने की अपनी कोशिश मे
किसी किताब के सफहे मे दबकर
अर्क़ से दबा जाएगा ,कोई गुमशुदा हरुफ़
और फिर अपने माज़ी से मिलने के लिए
मेरे ख़यालों का दरवाज़ा खटखटाएगा
गुजिशता एक दिन
(वो भी पूरा नहीं)
और उसके कुछ ज़िंदा लम्हों को
अपने धुंधले अक्स मे छुपकर
धनक से कई मानी
मेरे झोली मे डाल जाएगा ......!!
संध्या
शहरनामा : रोजनामचा (2)
सुबह के लबादे में कैद मौसम अपनी ओस की एक महीन सी परत हर ओर बना देता हैं ...गिरते पानी ने सड़क को ढाप लिया है समय की पांत जैसे कुछ कम चौड़ी हुई जान पड़ती है काम करते हुये घड़ी कुछ तेज़ भागती हुई लग रही है.....उफ्फ ! ये सर्द दिन ...
सड़कों पर चुनावी सरगरमियाँ यथावत हैं स्पीकर पर गूँज रही हैं आवाज़ें " हम लाये हैं तूफान से कश्ती निकाल के " दिल दिया है जाँ भी देंगे ए वतन तेरे लिए "ज़ोर शोर से पटाखों की आवाज़ें गूँजती हैं और फिर आवाज़ें "हम एक स्वच्छ और सुंदर भोपाल का वादा पूरा कर दिखाएंगे " और उनकी गाडियाँ गंदगी ज्यों की त्यों छोड़ आगे बढ़ जाती हैं ...दो -तीन पार्टियों की आमने सामने मुठभेड़ हो जाती है..... और भागती हुई सड़क यकबयक थम जाती है ट्रेफ़्फ़िक जाम .... एकदम पीक आवेर और हॉर्न की बढ़ती जा रहीं बेचैन आवाज़ें ....सेंसर मशीन पर अंगूठा लगा कर उपस्थिति दर्ज करने का तनाव मुझे भी घेर लेता है ... खुदाई से छोटी हो गई सड़क आने वाले लोग जाने वाले लोग उसी संकरी जगह से गाड़ी निकालने की अपनी अपनी कवायद में लीन और ज़रा आगे रेल्वे फाटक पर लाल बत्ती ...उफ्फ !!
कुछ निर्णयों को मुलतवी रखे जाने के बीच एक -एक कर हमारे बीच से किसी बड़े का कम होते चले जाना और उन्ही सब के बीच ... भीतरघात,उपालंभ और कुंठाओं की नमी से उपजे पौधे चारों ओर फैलते नज़र आने लगे हैं ..... कब किस कुंठा ने किस पौधे को आकार दिया ये उसके ज़हरीले पत्तों ने बताया अंदरूनी त्वचा पर धीरे -धीरे पड़ते उसके घाव नज़र ही ना आते... बहुत अपने समझे जाने वाले दोस्त.... रिश्ते समझे जाते थे जो उन्हे भी ना बताया जा सकता था इनके बारे में
"मिलने मिलाने का सलीका रखिए " निदा फ़ाज़ली साहब याद आते हैं बारीक सी भाव परत को सलीके से दबाये रखकर साथ -साथ चलते रहने का का छदम पाले मन पर एक उदासी की परत जम आती है ...और दिन का चेहरा और भी कोहरे में डूबा लगता है और नेपथ्य मे सलिल चौधरी अपना राग बजाने लगते हैं ...तुम्हारी ....मान्द आवाज़ साथ देने लगती है ....|
अकेलापन और भी अकेला होते जाने को बाध्य है ...शहर और भी ज़्यादा शहर होता हुआ बाहर से फैलता हुआ.... अंदर से सुकड़ता हुआ .......
विन्ड्स्क्रीन पर कोहरे की परत जम जाती है शुक्र है आँखें साफ है ...पहियों के साथ सड़क पर जमी दोस्ती के बीच होड़ लगाती गीली मिट्टी की गाढ़ी परत साथ चली आती है .... तरल भाव कहीं छिटक जाते हैं बीच -बीच में ये मोटे से ढेले मिट्टी के... तो विजेंद्र गाड़ी साफ कराते हुये साफ कर देता है मन पर जमी छदम को देखती परखती मिट्टी की परतें.... जिन्हे काट कर अलग करने को कोई चाकू नहीं .....
इसी मिट्टी की गीली परत पर शब्द कुछ निखर कर उभर कर दृष्टव्य होते हैं ...
डायरी का सफ़ेद पन्ना मुझे मुह सा चिढ़ा रहा है .......
संध्या
ज़रा देर को
कोई एक बादल का टुकड़ा
कर सकता है अदृश्य तुम्हें
अपनी गति के प्रमेय से बंधी
निहारती हूँ अटल तुम्हें ... 
हे ध्रुव ....
बनी रहना चाहती हूँ
और भी अधिक धरती
हमेशा के लिए ....
संध्या
शहरनामा : रोजनामचा (3)
बसंत के आगमन की खुशबुओं को लपेटे चल रही हवाएँ कांधे को सहला रही हैं... सुबह थोड़ी ख़ुनकी लिए जगाती है और दिन जैसे चौंधियाहट के साथ गालों पर नीम गरम थपकियाँ देता है प्रांगण को पार कर मुख्य द्वार तक पहुँचते कदम सूखे पत्तों की खडखड़ाहट भरे होते हैं ...आदतन सभी सर्द शरद से उबर नही पाये हैं और अपने गरम कपड़ों मे ही ढके हुये नज़र आते हैं |
चुनाव की आवाज़ें अपने कुछ नर्म और कुछ गरम परिणाम लिए दस्तक दे रही हैं ... जीपों और गाड़ी में भरे हुये गुलाल बिखराए रंगे लोग जीत का जश्न मना रहे है.... कुछ हार का सोग भी मना रहे हैं |स्मृध्धि और विकास की शर्तों पर जीते गए चुनाव अपने अपने हिसाब किताब लगाने मे जुटे हैं ... चुनाव परिणाम के साथ ही एक अजीब सा सन्नाटा सा पसरा नज़र आता है ...|
और मुझे याद आ रही है वो बरगद की छाँव जिसके नीचे बड़े हुये... जिसने सिखाया अपने पैरों पर खड़ा होना... और अपने साथ खड़ी लता को सहारा दिया.... अब छोड़ गया है स्वयं ही हम सबको अकेला ...कैसे ज़हरीली हवाओं से स्वयं को अलग रखा जा सकता है..... रहा जा सकता है बेअसर ...ये उसीने सिखाया..... और लीन हो गया प्ंच्तत्व में ,,,,,,नितांत अकेला छोड़ कर हमें ....और उसी के तले पले- बढ़े पौधे उसी का स्वरूप पर कितना अलग.... और उनके कद के पासंग भी नहीं ...दिन पर दिन मुरझाती लता ने ले लिया है सहारा अब ...उन ही पौधों का ...पर कितने दिन ...?
बसंत अपने रंगों से हर बरस लुभाता है याद आता है ....पर खुद की आँखों की चमक से भीगा अवसाद बसंत को भी अवसादमय बना देता है ...और उल्लास का कोई बिखरा कण..... इसे उल्लासमय बना देता है ....कहीं खोया सा इंद्रधनुष झाँक जाता है... जैसे दो हिस्सों में बट गया हो बसंत... अलग -अलग नज़रों में कैद हुआ .... और जहाँ न हार हो ना जीत ....? बस साथ -साथ चलता रहता है अपनी हर लय मे आबध्ध .....विरक्त ....जो जाने कितने टुकड़ों में बट गया है....साथ लपेटे ....चलते चलना है... .. अनिरवार ........अज्ञेय जी की कविताओं के इंद्रधनुष झाँक जाते हैं हाथों से .....
एक बेमायना .....वहम और अपनी ही शख़्सियत को तनकीद करता हुआ बसंत अपनी गुपचुप सरगोशीयों में .....बाहर ही कहीं ठिठक जाता है ...उसकी खामोश दस्तक को कुछ देर तवज्जो न दिये जाने पर...असंतुष्ट सा वो चल पड़ता है किसी और दरवाज़े पर दस्तक देने ...... और वो एक क़ातिल लम्हा उम्र भर को गिरां हो जाता है ....मुझपर ...और तुम्हारा इसरार ......गीत गाने को .... तुम अपना रंज ओ गम अपनी परेशानी  मुझे दे दो ......
मैं और शहर ...रात ....के इक खास पहर ...के गुफ्तगू के इंतज़ार में ....
नींद आगोश होती हुई रात ...
संध्या

Tuesday 10 March 2015

नहीं चाहिए उनको कोई बाधा
अपने मुगालतों में...
बहुत सारा खाली वक्त है उनके पास
और ढेर सारा खाना 
देखने को हैं सपने
और कर लिया है वक्त को खाली
दिवास्वप्नों के लिए ...
'इरशाद' 'वाह ' और' मुकर्रर ' की दिल खुश
आवाज़ों मे गुम है उनका असल व्यक्तित्व ...
और अहम के परचम थामे
स्वयंसिध्ध होने की होड़ में गुम हैं ...
अपने सफल अभिनय से
बिल्कुल नहीं कहते.... जो चाहते हैं
असल में
कहने और सोचने के फर्क को
दिखाई भी नही देने देते
अपने सशक्त अभिनय से वो ...
अपने दोहरी शख़्सियत पर
अक्सर लगा देते है ज्ञान की छौंक
तथाकथित बुध्धिजीविता से ...
बस लोभ का संवरण
बस के बाहर है इनके ....
(इन्हें पता ही नही .....ये कहाँ जाने के लिए निकले थे दरअसल ..

संध्या 
कोई कुछ भी कहे ,ये बात दीगर है ,
मेरे यक़ी से बड़ा तो कुछ भी नहीं !
संध्या
रात और दिन
रोज़ मिलते हैं ,बिछड्ते हैं
समय के विनिर्दिष्ट बिन्दु पर
और ठीक वहीं मुस्कुरा उठती है साँझ
अपने अस्तित्व को समेटे 
इंद्रधनुषी छटा बिखेरे, क्षितिज पर
लगाती है अपनी जीवंतता
की मोहर ....
अनवरत क्रम लिए
प्रतीक्षारत ...!!
संध्या
शब्द्श: पढ़ते रहे किताब ....
हाँ खुली किताब ही तो थी
कोई वादा न था किसी नए किस्से का
खुलेगा कोई नया रहस्य ऐसा भी न था 
हा, हर सवाल पर एक जवाब का वादा था
कुछ सवाल पूछे न जा सकते थे
कुछ जवाब दिये ना जा सकते थे
और जहाँ उलझन थी ...
सवाल को ही कटघरे में खड़ा कर दिया जाना था
ये भी कोई सवाल है भला ...? नेक्स्ट.......
फिर भी एक औज़ार था जिये जाने का निरंतर
कहीं चौंका देने वाली जीवंतता लिए ......
और कहीं खुशियों का पुलिंदा लिए
और कहीं उत्सुकता के भँवर लिए
डूबने को आतुर ....
और वही बना विधायक
उसी ने किए निर्णय
कभी ढूँढा जाता रहा सलीका
और कभी तलब......!!
संध्या
कभी बासी नही होते वो हाथ
जिनकी भर अंजुरी से पहुँचे हों रंग तुम तक
और उन्ही हाथों से गुज़र पाये हैं तुमने
रंग ,और उकेरे हैं शब्दचित्र
उन हाथों का एहसान भले ही न मानो तुम 
उन हाथों की सन्निहित खुशबू
तुम्हारे बनाए शब्दचित्रों में
हमेशा लहकती रहेगी .....
प्रेम कभी बासी नही होता प्रिय ....!!
संध्या
ढुलक गई तेरी कशिश की सियाही , इन सफहों पर ,
इस तरह अपनी ज़ात को कुछ और तराशा हमने !! 
...
रात भर आँखों से जो मोती टपके ,
"तसबीह" बना ली ज़िंदगी हमने !!
संध्या
सृष्टि के अंतिम छोर पर
डूबता है सूरज
आँखों की कोर में
भरता अंधियारा ....
नहीं डूब पाता हृदय के भीतर
जमा हुआ तुम्हारी कौंध का सूरज
अटका रहता सदा
जीवंतता की मोहर लगाता
जैसे उजागर हो जाता था सन्नाटा
चन्द्रकान्त देवताले जी की कविता
"कुछ तो है तुम में,जो सितार सा बजा लेती हो
सन्नाटे को तुम"
तुम्हारी आवाज़ की
मृदुता के साथ कौंधता ..........
बजता हुआ .....
साहिर, खामोश गुंजाते अपने गीत
तुम्हारे मेरे बीच....तुम्हारे मौन में....
तुम्हारे विश्वास .अति आत्मविश्वासी..
प्रश्नवाद के उत्तर में
चिन्हित...उजियारे के बीच
आ खड़े होते तुम ...
ख़ैयाम के गीत संगीत में
दिलराज कौर की दिलकश आवाज़
को गाती आवाज़ को बार बार
सुनने के इसरार के बीच
कौंधता सूरज .....
हृदय की नदी के पार .....
मुझे खुशी है
"साहिर" अब तक ठहरे हैं वहीं
"ख़ैयाम " भी जैसे साथ साथ चलते हैं
किसी मौन के टुकड़े में
किसी हाँ हूँ के बीच
और स्वीकृति की
म्रदुल मुसकान के बीच .....
सूरज जो दिखता रहा
कहीं डूबता हुआ
दरअसल जगह बदल
आ ठहरता है
दिल के बीचों बीच .....!!

संध्या 



कितनी सारी आवाज़ों के बीच
अपनीचिर-परिचित आवाज़ को ढूँढना
दूभर सा क्यों होता जा रहा है इन दिनों ....
कितना संतोष दे जाता था 
एक ही शहर में रहकर भी
कितने कितने दिन न मिलकर
जुड़े रहना बातों में... आवाज़ के साथ
और भर देता था कितनी बेचेनियाँ , बदहवासियाँ
कुछ ही समय को छोड़कर जाना शहर से बाहर मेरा
तुम्हारे अंदर ....
एक -एक पल की खबर रखना तुम्हारा
कहाँ हो ? सब ठीक है न ? अपना ख़याल रखना ....
तरह -तरह के अंदेशे तुम्हारे
और वो एहसास दूरियों का
तुम्हारी वो शीरी खनकदार आवाज़
और "खाँ यार " कह कर बतियाते असंख्य किस्से
और तुम्हारी खिलखिलाहट में बसी वो पुरसुकून लगावट
किस तरह चढ़ गए है भेंट कुछ दुरभिसंधियों के
या महत्वाकांक्षा के पहाड़ चढ़ गिर गए हैं विस्मृति के गर्त में
या चढ़ गई है समय की गर्द उस अदृश्य डोर पर
जिसने जोड़े रखा सदा ही .....
वो पुरशीरी आवाज़ ढूँढती है मेरे मोबाइल को
और मैं ढूँढती हूँ आवाज़ को उसके भीतर शिद्दत से
नदारद बेचेनियों का सुकून .......!!
संध्या