(3)स्मृति की गिरहें :---...
मुझे याद है आज भी ...सिनेमा देखने का कार्यक्रम एक दिन पहले बनाया जाता था , सूत्रधार होती थीं प्रेमा दी और यासमीन अप्पी ।मस्जिद के थीं बाज़ू वाला हमारा घर होता था ,और दो घर छोड़ कर यास्मीन अप्पी का घर था ...जब ढाई बजे का शो (मेटिनी) देखने जाना हो तो ठीक डेढ़ बजे से गफफ़ूर चाचा का तांगा घर के सामने आ खड़ा होता था। हमेशा की तरह तांगे की एन पीछे दो मोटी कीलें ठुकी होती थीं जिस पर सफ़ेद रंग का पर्दा टाँग दिया जाता था ,जिसके भीतर रशीदा अम्मी ,अप्पी और प्रेमा दी बैठा करती थीं । और सामने की ओर मैं सुधाकर भैया इम्तियाज़ जिन्हे हम गुड्डू कहा करते थे । और बलविंदर सुरिंदर बैठा करते थे गफफ़ूर चाचा के चाबुक से छेड़छाड करना हमारा खास शगल हुआ करता था । राशीदा अम्मी खाने पीने की चीज़ों से अपना 'डोलचा ' तैयार किया करती थीं । और हमारी अम्मा इडली चटनी स्टील के डब्बे में रख दिया करती थीं वो अक्सर हमारे साथ नहीं ....जाया करती थीं ....और तब हमारा सफर शुरू होता था ... कूच करते थे सिनेमा की और ये गिननोरी से होता हुआ बुधवारा फिर सुल्तानिया अस्पताल भारत टाकीज़ होता हुआ अल्पना टाकीज़ तक पहुँचता था ...और हम सब अंदर को दौड़ लगाते थे । टाकीज़ के अंदर की खूबसूरती और बड़े से काँच पर बनी ....पैमाने और सुराही के साथ सुंदरी की कलाकृतियाँ बहुत लुभाती थीं हमें .....और साहब ... सिनेमा देखने के बाद यास्मीन अप्पी का वहीदा रहमान के कपड़ों को खास तौर से ध्यान से देखना और घर आने के बाद उसका तफसील से बयान ...चप्पलें साड़ियों और कुर्तियों पर की गई कड़ाई ज्यों की त्यों उकेर देती थीं। कभी मोतियों का काम कभी पोत की हसीन कसीदेकारी ...बाद के कुछ सप्ताह इन्ही रंगीनीयों में गुज़रते थे ....!
आज याद करती हूँ ऐसे कोई दो परिवार दिखें जो दिलों मे उज्र लाये बगैर मिलते जुलते हों ...तो आँखों में एक तलाश की एक मोटी सी मोतियाबिंद गिरह बंध जाती हैं ...!!
आज याद करती हूँ ऐसे कोई दो परिवार दिखें जो दिलों मे उज्र लाये बगैर मिलते जुलते हों ...तो आँखों में एक तलाश की एक मोटी सी मोतियाबिंद गिरह बंध जाती हैं ...!!
(वो सिनेमा 'आदमी' दिलीप साहब और वहीदा रहमान थीं उसमे वान गोग का ये चित्र देख खास याद आया )