Thursday 22 October 2015

ये मेरी जेब में पड़ा सिक्का
कीमती इतना जैसे होना तुम्हारा
इसके दोनों तरफ 'हेड' अंकित हों
ऐसा भी नहीं
786 भी नही लिखा इस पर
फिर भी ,बनक ऐसी
जैसे छू आया हो चाँद को
खोने का ख़ौफ़ इतना बड़ाये मेरी जेब में पड़ा सिक्का
कीमती इतना जैसे होना तुम्हारा
इसके दोनों तरफ 'हेड' अंकित हों
ऐसा भी नहीं
786 भी नही लिखा इस पर
फिर भी ,बनक ऐसी
जैसे छू आया हो चाँद को
खोने का ख़ौफ़ इतना बड़ा
कि,नींदें हर ले
कोई दिखाता मुझे बार -बार
खनखनाता अपनी जेब
पर दिखता परछांई सा कुछ वहाँ
आत्मा की उजास पर
मेरी चोर जेब में टंका
चाँद सा सिक्का ।

Thursday 8 October 2015

जैसे बूँदें
धुप से निकले
छूने ज़मीन को 
ठीक वेसे ही निकलना
जीवन की तंग गलियों से
छूना अंतस की 
ज़मीन को निर्द्वंद्व....

पत्तों को निथार कर 
टपकती फुहारें ठहरती 
रूकती अपनी बूंदों के बीच
संभालतीं अपना पृष्ठ तनाव
आतुर पहुँचने को अपने 
गंतव्य की और जैसे ....
कुछ देर ठहरना, करना प्रतीक्षा
 कोर पर ठहरी बूँद
ज्यों ठहर करती प्रतीक्षा 
आती हुई दूसरी बूँद का ....
जाते हुए अपने 
गंतव्य को .....

पाने अपना ध्येय चरम ...!

संध्या 
अम्मा 
जब भी करती थी बिदा
जाने कितनी गठरियाँ 
बाँध धर देती थी संदूक में 
सारे काम निपटाकर 
थोडा कुछ खा पीकर 
भंडारे में खोलती थी संदूक
माँ की सोंधी सी महक
हर गठरी से लहक उठती थी
रंग बिरंगे चपेटे की गठरी 
रंगीन तितली से हाथों में चिपक जाते थे ....
साड़ियों के बीच छुपे सिक्के 
कैसे पता होता था माँ को
उसकी चोर ज़रूरतों का
एक ज़िंदगी जिसमे थीसांसे
स्पंदन सपनो की विरासतें
रेत के टीले सुनहरी सफ़ेद फ्रॉक गुलाबी रिबन सुनहरी
कामदार मोजड़ी पथ्थर की 
असंख्य मालाएं ...
दुलार राखी का स्पर्श पापा 
की किताब की खुशबू ...

साल दर साल 
अपनी जगह बदलता 
अपना रूप भी बदलता 
पर जब भी खोलती संदूक
यादों के पिटारे साथ चले आते गठरियों की महक लिए
जिसे सिर्फ वो जानती 
और ये संदूक ....

संध्या