क्यों मालूम होता है ...
क्यों मालूम होता है
खाली हाथ ही लौटना होगा हमेशा
अपनी अपनी कंदराओं मे....
एक संपूर्ण मुखरता से
अपनी बात कह देने के बाद भी
ओर फिर सूनेपन से देखते है हुड़दंगी आवाज़ों को
अपनी निराशा के स्तूप थामे ....
कि,निर्णय की अदृश्य कीलें टंग जाती है
बेबसी के खूँटे पर
किसी लड़ाई को नहीं रखा जा सकता कैद
झूठ की आवाज़ के जालों मे
समझौतों की कारा केवल घाव बना सकती है
हौसले नहीं मिटा सकती
सत्य साबित नहीं होता उनकी लम्बाई या संख्या से
रास्ते अभी ज़िंदा हैं....
महफूज है उजाले अंतरतम के ॥
साथी ,लड़ाई जारी है अभी ........!!...
संध्या