Wednesday 20 January 2016



क्यों मालूम होता है ...


क्यों मालूम होता है
खाली हाथ ही लौटना होगा हमेशा
अपनी अपनी कंदराओं मे....
एक संपूर्ण मुखरता से
 अपनी बात कह देने के बाद भी
ओर फिर सूनेपन से देखते है  हुड़दंगी आवाज़ों को
अपनी निराशा के स्तूप थामे ....
कि,निर्णय की अदृश्य कीलें टंग  जाती है
बेबसी के खूँटे पर
किसी लड़ाई को नहीं रखा जा सकता कैद
झूठ की आवाज़ के जालों मे
समझौतों की कारा केवल घाव बना सकती है
हौसले नहीं मिटा सकती
 सत्य साबित नहीं होता उनकी लम्बाई या संख्या से
रास्ते अभी ज़िंदा हैं....
महफूज है उजाले अंतरतम के ॥

साथी ,लड़ाई जारी है अभी ........!!...



संध्या


Thursday 22 October 2015

ये मेरी जेब में पड़ा सिक्का
कीमती इतना जैसे होना तुम्हारा
इसके दोनों तरफ 'हेड' अंकित हों
ऐसा भी नहीं
786 भी नही लिखा इस पर
फिर भी ,बनक ऐसी
जैसे छू आया हो चाँद को
खोने का ख़ौफ़ इतना बड़ाये मेरी जेब में पड़ा सिक्का
कीमती इतना जैसे होना तुम्हारा
इसके दोनों तरफ 'हेड' अंकित हों
ऐसा भी नहीं
786 भी नही लिखा इस पर
फिर भी ,बनक ऐसी
जैसे छू आया हो चाँद को
खोने का ख़ौफ़ इतना बड़ा
कि,नींदें हर ले
कोई दिखाता मुझे बार -बार
खनखनाता अपनी जेब
पर दिखता परछांई सा कुछ वहाँ
आत्मा की उजास पर
मेरी चोर जेब में टंका
चाँद सा सिक्का ।

Thursday 8 October 2015

जैसे बूँदें
धुप से निकले
छूने ज़मीन को 
ठीक वेसे ही निकलना
जीवन की तंग गलियों से
छूना अंतस की 
ज़मीन को निर्द्वंद्व....

पत्तों को निथार कर 
टपकती फुहारें ठहरती 
रूकती अपनी बूंदों के बीच
संभालतीं अपना पृष्ठ तनाव
आतुर पहुँचने को अपने 
गंतव्य की और जैसे ....
कुछ देर ठहरना, करना प्रतीक्षा
 कोर पर ठहरी बूँद
ज्यों ठहर करती प्रतीक्षा 
आती हुई दूसरी बूँद का ....
जाते हुए अपने 
गंतव्य को .....

पाने अपना ध्येय चरम ...!

संध्या 
अम्मा 
जब भी करती थी बिदा
जाने कितनी गठरियाँ 
बाँध धर देती थी संदूक में 
सारे काम निपटाकर 
थोडा कुछ खा पीकर 
भंडारे में खोलती थी संदूक
माँ की सोंधी सी महक
हर गठरी से लहक उठती थी
रंग बिरंगे चपेटे की गठरी 
रंगीन तितली से हाथों में चिपक जाते थे ....
साड़ियों के बीच छुपे सिक्के 
कैसे पता होता था माँ को
उसकी चोर ज़रूरतों का
एक ज़िंदगी जिसमे थीसांसे
स्पंदन सपनो की विरासतें
रेत के टीले सुनहरी सफ़ेद फ्रॉक गुलाबी रिबन सुनहरी
कामदार मोजड़ी पथ्थर की 
असंख्य मालाएं ...
दुलार राखी का स्पर्श पापा 
की किताब की खुशबू ...

साल दर साल 
अपनी जगह बदलता 
अपना रूप भी बदलता 
पर जब भी खोलती संदूक
यादों के पिटारे साथ चले आते गठरियों की महक लिए
जिसे सिर्फ वो जानती 
और ये संदूक ....

संध्या

Sunday 14 June 2015



अप्रत्याशित



अब जब भी देती है वो कोई उत्तर
सर ऊँचा रहता है उसका हमेशा

सवालों में छुपे कटाक्ष ओर दुरभिसंधियों
का पता होता है उसे
अपनी ज़रूरतों के लिए दयनीय बने रहना
अब नहीं है स्वीकार उसे
सदियों से संभाल कर रखी जा रही भाषा और व्यवहार को
बखूबी अपनी ओर मोड़ना सीख लिया है उसने
प्रेम की यांत्रिक परिभाषा से कोसों दूर हो चुकी है वो
मूर्ख बनाने और बनने की बीच की
दोनों राहों का त्याग कर दिया है उसने

सिर्फ स्वीकार्य नहीं है उसे अनयाय ओर स्वार्थ के नाम पर
 की जा रही पक्षपात पूर्ण गतिविधियाँ
शरीर और मन के मान्य खाँचों को तोड़ डाला है उसने
पवित्रता की परिभाषा अब केवल
इरादों और घोषित रीति नीतियों के भरोसे नहीं चलने वाली है अब
ये अच्छी तरह जानती है वो ...

अब ज़रूरी होगा तुम्हारे लिए अपनी सुस्त रफ्तार को बदलना
अपने आराम और ऐश की चीज़ समझे जाने से इंकार है उसे

हो सके तो खुद से लड़ो पहले और
जिसे तुमने बनाया था अपने हाथों
नियमों की कढ़ाई में तलकर
जिसमें सिर्फ एक तरफ ही नियम तल पाये तुम
और भूल गए दूसरी तरफ तलना

सीख लो ठीक जगह खड़े होकर सवाल करना ...
अप्रत्याशित हो सकते हैं जवाब .....!!


संध्या 
तरतीब


जिये गए समय
और गुज़ार लिए समय की
तरतीब जब बाँधी गई

दक्षता और योग्यता को
मांझने के समय को बिताया
असमंजस में ...

रोज़ी -रोटी की दौड़ में
कतारों में लगे  -लगे बीता समय
अक्सर उम्मीदों का था
नक्शे ज़्यादा होते थे और होते थे अस्पष्ट भी
पहुँचने की जगह का
नहीं रहता था
मन से कोई ताल्लुक

अधर से कटा समय का  टुकड़ा
खड़ा था विस्थापित जड़ें लिए

जहाँ हारे
अक्सर वहीं कीं सफलताएं अर्जित
जो अप्राप्य लगा
उसी के पीछे ज़्यादा भागे

जीत की एक ही शर्त थी
दायित्व हार जाते अगर .......!


संध्या





एक प्रश्न



धीरे -धीरे बढ़ती जाती
भीतर की धधकती आग ....
एक तटस्थ भाव होता जाता कम ...

वो धीरज जो साधता रहा बरसों दृष्टि को
होता जा रहा कहीं गुम
जीतने होते जाते भार कम
उतना ही और जुड़ता जाता मन
अपने ही महवर पर घूमता हुआ

कहाँ -कहाँ निर्भर रहते भाव बोझ से दबे
कहाँ दंभ ने सर उठाया
और कहाँ कुचला गया दंभ का स्वर
और कभी बने शुतुरमुर्ग
करते रहे इंकार ही देखने से
सत्य का सिरा

क्या था जिसका थामा  था परचम... ?
भरम या आत्मछल...?

कितना वजन बढ़ा कितना हुआ कम
खुद में कितना बचा मैं .....


संध्या