Sunday 14 June 2015



अप्रत्याशित



अब जब भी देती है वो कोई उत्तर
सर ऊँचा रहता है उसका हमेशा

सवालों में छुपे कटाक्ष ओर दुरभिसंधियों
का पता होता है उसे
अपनी ज़रूरतों के लिए दयनीय बने रहना
अब नहीं है स्वीकार उसे
सदियों से संभाल कर रखी जा रही भाषा और व्यवहार को
बखूबी अपनी ओर मोड़ना सीख लिया है उसने
प्रेम की यांत्रिक परिभाषा से कोसों दूर हो चुकी है वो
मूर्ख बनाने और बनने की बीच की
दोनों राहों का त्याग कर दिया है उसने

सिर्फ स्वीकार्य नहीं है उसे अनयाय ओर स्वार्थ के नाम पर
 की जा रही पक्षपात पूर्ण गतिविधियाँ
शरीर और मन के मान्य खाँचों को तोड़ डाला है उसने
पवित्रता की परिभाषा अब केवल
इरादों और घोषित रीति नीतियों के भरोसे नहीं चलने वाली है अब
ये अच्छी तरह जानती है वो ...

अब ज़रूरी होगा तुम्हारे लिए अपनी सुस्त रफ्तार को बदलना
अपने आराम और ऐश की चीज़ समझे जाने से इंकार है उसे

हो सके तो खुद से लड़ो पहले और
जिसे तुमने बनाया था अपने हाथों
नियमों की कढ़ाई में तलकर
जिसमें सिर्फ एक तरफ ही नियम तल पाये तुम
और भूल गए दूसरी तरफ तलना

सीख लो ठीक जगह खड़े होकर सवाल करना ...
अप्रत्याशित हो सकते हैं जवाब .....!!


संध्या 

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