Thursday 8 October 2015

अम्मा 
जब भी करती थी बिदा
जाने कितनी गठरियाँ 
बाँध धर देती थी संदूक में 
सारे काम निपटाकर 
थोडा कुछ खा पीकर 
भंडारे में खोलती थी संदूक
माँ की सोंधी सी महक
हर गठरी से लहक उठती थी
रंग बिरंगे चपेटे की गठरी 
रंगीन तितली से हाथों में चिपक जाते थे ....
साड़ियों के बीच छुपे सिक्के 
कैसे पता होता था माँ को
उसकी चोर ज़रूरतों का
एक ज़िंदगी जिसमे थीसांसे
स्पंदन सपनो की विरासतें
रेत के टीले सुनहरी सफ़ेद फ्रॉक गुलाबी रिबन सुनहरी
कामदार मोजड़ी पथ्थर की 
असंख्य मालाएं ...
दुलार राखी का स्पर्श पापा 
की किताब की खुशबू ...

साल दर साल 
अपनी जगह बदलता 
अपना रूप भी बदलता 
पर जब भी खोलती संदूक
यादों के पिटारे साथ चले आते गठरियों की महक लिए
जिसे सिर्फ वो जानती 
और ये संदूक ....

संध्या

No comments:

Post a Comment